ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती / दुष्यंत कुमार

ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती
ज़िन्दगी है कि जी नहीं जाती

इन सफ़ीलों में वो दरारे हैं
जिनमें बस कर नमी नहीं जाती

देखिए उस तरफ़ उजाला है
जिस तरफ़ रौशनी नहीं जाती

शाम कुछ पेड़ गिर गए वरना
बाम तक चाँदनी नहीं जाती

एक आदत-सी बन गई है तू
और आदत कभी नहीं जाती

मयकशो मय ज़रूर है लेकिन
इतनी कड़वी कि पी नहीं जाती

मुझको ईसा बना दिया तुमने
अब शिकायत भी की नहीं जाती

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