मुलाहिज़ा हो मेरी भी उड़ान, पिंजरे में / अखिलेश तिवारी

मुलाहिज़ा हो मेरी भी उड़ान, पिंजरे में
अता हुए हैं मुझे दो जहान‍, पिंजरे में

है सैरगाह भी और इसमें आबोदाना भी
रखा गया है मेरा कितना ध्यान पिंजरे में

यहीं हलाक‍ हुआ है परिन्दा ख़्वाहिश का
तभी तो हैं ये लहू के निशान पिंजरे में

फलक पे जब भी परिन्दों की सफ़ नज़र आई
हुई हैं कितनी ही यादें जवान पिंजरे में

तरह तरह के सबक़ इसलिए रटाए गए
मैं भूल जाऊँ खुला आसमान पिंजरे में

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