मार्खेज को डिमेंशिया हो गया है / अंशु मालवीय

मार्खेज को डिमेंशिया हो गया है।
जीवन की उत्ताल तरंगों के बीच गिर-गिर पड़ते हैं
स्मृति की नौका से बिछल-बिछलकर;
फिर भरसक-भरजाँगर
कोशिश कर बमुश्किल तमाम
चढ़ पाते हैं नौका पर,
उखड़ती साँसों की बारीक डोर थाम।
जिसे इनसानियत का सत्व मानते हैं वह
वही स्मृति साथ छोड़ रही है उनका
विस्मृति के महाप्रलय में
निरुपाय-निहत्था है हमारा स्मृतियोद्धा अब।
सामूहिक स्मृतिलोप के शिकार
माकोंडो गाँव के निवासियों की तरह
चलो हम उनके लिए चीजों पर उनके नाम लिख दें –
देखो ये बिक चुकी नदी है
ये नीलाम हो चुके पर्वत
अपने अस्तित्व ही नहीं
हमारी यादों के भी कगार पर जी रहे पंछी
ये हैं अवैध घोषित हो चुकी नस्लें
ये हैं हमारे गणराज्य
बनाना रिपब्लिक के संवैधानिक संस्करण
ये है तुम्हारा वाइन का गिलास
ये कलम, ये कागज और ये तुम हो
हमारे खिलंदड़े लेखक गेब्रिएल गार्सिया मार्खेज !
ये यादें ही तो हैं
जिन्होंने नाचना और गाना सिखाया
सिखाया बोलना और चलना
सिखाया जीना और बदला लेना,
लामकाँ में घर बनाना सिखाया
हमारे विस्थापित मनों को
हमें और किसी का भरोसा नहीं स्मृति यात्री!
धर्म ने हमारा सत्वहरण कर लिया
विज्ञान ने तानाशाहियों की दलाली की
विचारधाराओं ने राष्ट्रों के लिए मुखबिरी की
इतिहास ने हमारी परछाइयाँ बुहार दीं
हमें यादों का ही भरोसा है,
अब वह भी छिनी जाती है
बगैर किसी मुआवजे के हमारी जमीनों जैसी।
यादें जमीन हैं
आसमान के बंजरपन को
अनंतकाल से कोसती हुई।
हमारी नाल कहाँ गड़ी है?
माँ जैसे लोरी सुनाने वाले सनकी बूढ़े!
कब से यूँ ही विचर रहे हो धरती पर
हमारे प्रसव के लिए पानी गुनगुना करते,

थरथराते हाथों से दिए की लौ पकड़े हुए स्मृति धाय! हमारी नाल कहाँ गड़ी है?
कैसी हैं हमारी विच्छिन्न वल्दीयतें!
कैसे हैं इनसानियत के नकूश!
हमारे गर्भस्वप्न कैसे हैं?
किन तितलियों के पंखों में छुपे हैं
हमारे दोस्त फूलों के पुष्प पराग…!
किससे पूछें
तुमसे तो खुद जुदा हो चली हैं स्मृतियाँ
स्मृति नागरिक !
मछलियों की रुपहली पीठों पर ध्यान लगाए
पानी के ऊपर ठहरे जलपाखियों की एकाग्र साधना से पूछें,
पूछें पानी से सट कर उड़ते बगुलों की पंख समीरन से,
जमुना के गंदले पानी में टूटकर बिखरे
सूरज की किरचों से पूछें,
पूछें मरीचिका के संधान में मिथक बनते मृगों से,
डेल्टावनों की सांघातिक मक्खियों से पूछें
या पूछें अभयारण्यों में खाल के व्यापारियों से
अभय की भीख माँगते बाघों से,
अपने खेत में अपने पोसे हुए पेड़ की डाल से खुदकुशी करते
किसान के अँगोछे की गाँठ से पूछें,
या बंद कारखाने के अकल्पनीय अकेले चौकीदार से पूछें,
फ्लाई ओवर के नीचे गड़गड़ाहट से उचटी नींदों से पूछें
या पूछें सीवर से निकलती कार्बन मोनो ऑक्साइड से
किस उपनिषद- किस दर्शन के पास जवाब है इन सवालों का
सिवाय यायावर यादों की एक तवील यात्रा के
हमें हमारी गड़ी हुई नालों के स्वप्न क्यूँ आते हैं?
हमारे ज्ञानी ओझा!
हम सब डिमेन्शिया में जा रहे हैं मार्खेज!
अपने उचटे हुए हाल और बेदखल माजी के बीच झूलते
किसी और का मुस्तकबिल जीने को अभिशप्त;
ये किन अनुष्ठानों का अभिशाप है?
कि शब्द अपने अर्थ भूलते जा रहे हैं
भूलती जा रही हैं साँसें अपनी लय
खिलौने सियासत करने लगे हैं
साज लड़ने लगे हैं जंग
जिस्मफरोशी कर रही हैं रोटियाँ
और हम हथियारों का तकिया लगाने को मजबूर हैं!
हम सब डिमेन्शिया में जा रहे हैं मार्खेज
और हम इसे अलग-अलग नामों से पुकार रहे हैं
विकास, तरक्की, साझा भविष्य… या
या इतिहास गति की वैज्ञानिक नियति?
विज्ञान और नियति
माई गुडनेस!
मार्खेज तुम्हें डिमेन्शिया हो गया है और
इससे पहले कि यादों से पूरी तरह वतन बदर हो जाओ
एक बार जरूर हमारे लिए चीजों पर नाम की चिप्पियाँ लगाना
मसलन-
ये हैं यादें
ये है आजादी और
ये है लड़ना
यादों के छोर तक लड़ना!

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *