महानगर में आज / अंजू शर्मा

अक्सर, जब बिटिया होती है साथ
और करती है मनुहार
एक कहानी की,
रचना चाहती हूँ
…सपनीले इन्द्रधनुष,
चुनना चाहती हूँ
…कुछ मखमली किस्से,

यूँ हमारे मध्य तैरती रहती हैं
कई रोचक कहानियां,
किन्तु इनमें
परियों और राजकुमारियों के चेहरे
इतने कातर पहले कभी नहीं थे,
औचक खड़ी सुकुमारियाँ
भूल जाया करती हैं
टूथपेस्ट के विज्ञापन,
और भयावह उकाबों पर सवार मुस्कानें
तब खो जाती हैं
किसी सुदूर लोक की वादियों में,

ऊँची कंक्रीट की बिल्डिंगें,
एकाएक बदल जाती हैं
खौफनाक आदिम गुफाओं में
सींगों वाले राक्षसों के मुक्त अट्टहास
तब उभर आते हैं
“महानगर में आज” के कॉलम में,
छलावा दबे पांव आता है
विश्वास का मुखौटा लगाये
और संवेदनाओं की कब्र के ठीक ऊपर
हर उम्र की मादा बदल जाती है
एक सनसनीखेज सुर्खी में,

सदियों पुरानी सभ्यता जी रही है
अपने आधुनिकतम दौर के
गौरव को
और विकास के सबसे ऊँचे पायदान पर
जब सभी थपथपाते हैं अपनी पीठ
तमाम सावधानियों के बावजूद
यहाँ वहां से झांक ही लेती है ये सच्चाई
कि गुमशुदगी से भरे पन्ने
गायब हैं रोजनामचों से,
और नीली बत्तियों की रखवाली ही
आज प्रथम दृष्टतया है,

समारोह में माल्यार्पण से
गदगद तमगे खुश है
कि आंकड़े बताते हैं
अपराध घट रहे हैं,

विदेशी सुरा, सुन्दरी और गर्म गोश्त
मिलकर रचते हैं नया इतिहास,
इतिहास जो बताता है
कि गर्वोन्मत पदोन्नतियां
अक्सर भारी पड़ती हैं
मूक तबादलों पर…

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