मंज़िल जो मैं ने पाई तो शशदर भी मैं ही था / क़तील

मंज़िल जो मैं ने पाई तो शशदर भी मैं ही था
वो इस लिए के राह का पत्थर भी मैं ही था

शक हो चला था मुझ को ख़ुद अपनी ही ज़ात पर
झाँका तो अपने ख़ोल के अंदर भी मैं ही था

होंगे मेरे वजूद के साए अलग अलग
वरना बरून-ए-दर भी पस-ए-दर भी मैं ही था

पूछ उस से जो रवाना हुए काट कर मुझे
राह-ए-वफ़ा में शाख़-ए-सनोबर भी मैं ही था

आसूदा जिस क़दर वो हुआ मुझ को ओढ़ कर
कल रात उस के जिस्म की चादर भी मैं ही था

मुझ को डरा रही थी ज़माने की हम-सरी
देखा तो अपने क़द के बराबर भी मैं ही था

आईना देखने पे जो नादिम हुआ ‘क़तील’
मुल्क-ए-ज़मीर का वो सिकंदर भी मैं ही था

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