प्रेम / रामनरेश त्रिपाठी

(१)
यथा ज्ञान में शांति, दया में कोमलता है।
मैत्री में विश्वास, सत्य में निर्मलता है॥
फूलों में सौंदर्य, चंद्र में उज्ज्वलता है।
संगति में आनंद, विरह में व्याकुलता है॥
जैसे सुख संतोष में
तप में उच्च विचार है।
त्यों मनुष्य के हृदय में
शुद्ध प्रेम ही सार है॥
(२)
पर-निंदा से पुण्य, क्रोध से शांति तपोबल।
आलस से सुख-शक्ति, मोह से ज्ञान मनोबल॥
निर्धनता से शील, लाज मिथ्याभिमान से।
दुराचार से देश, तेज निज कीर्ति-गान से॥
इसी भाँति से प्रेम भी,
जो सुख का आधार है।
थोड़े से संदेह से
हो जाता निस्सार है॥
(३)
उमड़ रही है घटा, भयानक घिरा अँधेरा।
वन-पथ कंटक और हिंसको से है घेरा॥
कोई साथी नहीं सुपरिचित राह नहीं है।
मृत्यु खड़ी है किंतु तुम्हें परवाह नहीं है॥
हे पथिक! तुम्हारे हृदय में,
किस जीवन का सार है?
किसकी सुध है साथ में?
किसका निर्भय प्यार है?

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