परिशिष्ट-9 / कबीर

कबीर सूख न एह जुग करहि जु बहुतैं मीत।
जो चित राखहि एक स्यों ते सुख पावहिं नीत॥161॥

कबीर सूरज चाद्दद कै उरय भई सब देह।
गुरु गोबिंद के बिन मिले पलटि भई सब खेह॥162॥

कबीर सोई कुल भलो जा कुल हरि को दासु।
जिह कुल दासु न ऊपजे सो कुल ढाकु पलासु॥163॥

कबीर सोई मारिये जिहि मूये सुख होइ।
भलो भलो सब कोइ कहै बुरो न मानै कोइ॥164॥

कबीर सोइ मुख धन्नि है जा मुख कहिये राम।
देही किसकी बापुरी पवित्रा होइगो ग्राम॥165॥

हंस उड़îौ तनु गाड़िगो सोझाई सैनाह।
अजहूँ जीउ न छाड़ई रंकांई नैनाह॥166॥

हज काबे हौं जाइया आगे मिल्या खुदाइ।
साईं मुझस्यो लर पर्‌या तुझै किन फुरमाई गाइ॥167॥

हरदी पीर तनु हरे चून चिन्ह न रहाइ।
बलिहारी इहि प्रीति कौ जिह जाति बरन कुल जाइ॥168॥

हरि को सिमरन छाड़िकै पाल्यो बहुत कुंटुब।
धंधा करता रहि गया भाई रहा न बंधु॥169॥

हरि का सिमरन छाड़िकै राति जगावन जाइ।
सर्पनि होइकै औतरे जाये अपने खाइ॥170॥

हरि का सिमरन छाड़िकै अहोई राखे नारि।
गदही होइ कै औतरै भारु सहै मन चारि॥171॥

हरि का सिमरन जो करै सो सुखिया संसारी।
इत उत कतहु न डोलई जस राखै सिरजनहारि॥172॥

हाड़ जरे ज्यों लाकरी केस जरे ज्यों घासु।
सब जग जरता देखिकै भयो कबीर उदासु॥173॥

है गै बाहन सघन घन छत्रापती की नारि।
तासु पटंतर ना पुजै हरि जन की पनहारि॥174॥

है गै बाहन सघन घन लाख धजा फहराइ।
या सुख तै भिक्खा भली जौ हरि सिमरन दिन जाइ॥175॥

जहाँ ज्ञान तहँ धर्म है जहाँ झूठ तहद्द पाप।
जहाँ लाभ तहद्द काल है जहाँ खिमा तहँ आप॥176॥

कबीरा तुही कबीरू तू तेरो नाउ कबीर।
रात रतन तब पाइयै जो पहिले तजहिं सरीर॥177॥

कबीरा धूर सकेल कै पुरिया बाँधी देह।
दिवस चारि को पेखना अंत खेह की खेह॥178॥

कबीरा हमरा कोइ नहीं हम किसहू के नाहि।
जिन यहु रचन रचाइया तितहीं माहिं समाहिं॥179॥

कोई लरका बेचई लरकी बेचै कोइ।
साँझा करे कबीर स्यों हरि संग बनज करेइ॥180॥

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *