परिशिष्ट-2 / कबीर

कबीर कस्तूरी भया भवर भये सब दास।
ज्यों ज्यों भगति कबीर की त्यों त्यों राम निवास॥21॥

कागद केरी ओबरी मसु के कर्म कपाट।
पाहन बोरी पिरथमी पंडित थाड़ी बाट॥22॥

काम परे हरि सिमिरिये ऐसा सिमरो चित।
अमरपुरा बांसा करहु हरि गया बहोरै बित्त॥23॥

काया कजली बन भया मन कुंजर मयमंतु।
अंक सुज्ञान रतन्न है खेवट बिरला संतु॥24॥

काया काची कारवी काची केवल धातु।
सावतु रख हित राम तनु माहि त बिनठी बात॥25॥

कारन बपुरा क्या करै जौ राम न करै सहाइ।
जिहि जिहि डाली पग धरौं सोई मुरि मुरि जाइ॥26॥

कबीर कारन सो भयो जो कीनौ करतार।
तिसु बिनु दूसर को नहीं एकै सिरजनुहार॥27॥

कालि करंता अबहि करु अब करता सुइ ताल।
पाछै कछू न होइगा जौ सिर पर आवै काल॥28॥

कीचड़ आटा गिर पर्‌या किछू न आयो हाथ।
पीसत पीसत चाबिया सोई निबह्या साथ॥29॥

कबीर कुकरु भौकता कुरंग पिछैं उठि धाइ।
कर्मी सति गुर पाइया जिन हौ लिया छड़ाइ॥30॥

कबीर कोठी काठ की दह दिसि लागी आगि।
पंडित पंडित जल मुवे मूरख उबरे भागि॥31॥

कोठे मंडल हेतु करि काहे मरहु सँवारि।
कारज साढ़े तीन हथ धनी त पौने चारि॥32॥

कौड़ी कौड़ी जोरि के जोरे लाख करोरि।
चलती बार न कछु मिल्यो लई लँगोटी छोरि॥33॥

खिंथा जलि कोयला भई खापर फूटम फूट।
जोगी बपुड़ा खेलियो आसनि रही बिभूति॥34॥

खूब खाना खीचरी जामै अंमृत लोन।
हेरा रोटी कारने गला कटावै कौन॥35॥

गंगा तीर जू घर करहि पीवहि निर्मल नीर।
बिनु हरि भगति न मुकति होइ यों कहि रमे कबीर॥36॥

कबीर राति होवहि कारिया कारे ऊभे जंतु।
लैं गाहे उठि धावते सिजानि मारे भगवंतु॥37॥

कबीर मनतु न कीजियै चाम लपेटे हाथ।
हैबर ऊपर छत्रा तर ते फुन धरती गाड़॥38॥

कबीर गरबु न कीजियै ऊँचा देखि अवासु।
आजु कालि भुइ लेटना ऊपरि जामै घासु॥39॥

कबीर गरबु न कीजियै रंकु न हसियै कोइ।
अजहु सु नाउ समुद्र महि क्या जानै क्या होइ॥40॥

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