नव्य न्याय का अनुशासन-2 / लक्ष्मीकांत वर्मा

तुम गुलाब की क्यारियों में आग लगना चाहते हो
लगा दो : किन्तु गुलाब की सुगन्ध बचा लो
तुम हरी-भरी लताओं को लपटों में बदलना चाहते हो
बदल दो : किन्तु हरियाली मन में बसा लो

तुम प्रतिमाएँ तोड़ना चाहते हो
तोड़ दो : किन्तु आस्थाएँ ढाल लो
तुम ज्ञान को नकारना चाहते हो
नकार दो : किन्तु अनुभवों को संजो लो
तुम लक्ष्मण रेखाएँ मिटाना चाहते हो
मिटा दो : पर मर्यादाएँ सम्भाल लो
दीवारोंपर नारे और चौराहों पर क्रान्तियाँ लाना चाहते हो
ले आओ : पर शब्दों को संयम भाषा का मर्म दो
सुनो,
मैं तुम्हारे बदहवास चेहरों को
क़िताब मानता हूँ
इसलिए उठो मेरी जिज्ञासाएँ सम्भाल लो
तभी वैशम्पायन ने कहा–
बाणभट्ट
समास की भाषा नहीं
मुझे समास-मुक्त करके देखो
मुझे जीवन दो
तुम्हें मुक्ति मिलेगी।

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