था रवानी से ही कायम उसकी हस्ती का सुबूत / अखिलेश तिवारी

था रवानी से ही कायम उसकी हस्ती का सुबूत
गर ठहर जाता तो फिर दरिया कहाँ होने को था

खुद को जो सूरज बताता फिर रहा था रात को
दिन में उस जुगनू का अब चेहरा धुआं होने को था

जाने क्यूँ पिंजरे की छत को आसमां कहने लगा
वो परिंदा जिसका सारा आसमां होने को था

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