जूड़े घटाओं के / गोपालदास “नीरज”

दिन गए बीत शर्मीली हवाओं के,
दूर तक दिखते नहीं जूड़ें घटाओं के

झाँकता खिड़की न कोई, हर किवाड़ा बंद,
पी गया सुनसान सारा रूप सब मरकन्द,
रह गए हैं हाथ बस कुछ ख़त गुनाहों के.
दूर तक दिखते नहीं जूड़ें घटाओं के.

सिर्फ रस ही रस बरसती थी जहाँ बरसात,
स्वर्ग से कुछ कम न रचती थी जहाँ हर रात,
है वहां अब मंच आसू की सभाओं का.
दूर तक दिखते नहीं जूड़ें घटाओं के.

आह सांवर बाहुओं की घाटिओं के पार,
जो बसा संसार वैसा कब बसा संसार,
कौन अब शीर्षक बताये उन कथाओं के?
दूर तक दिखते नहीं जूड़ें घटाओं के.

अब न वो मौसम, ओ सरगम, न वो संगीत,
फूल के कपडे पहनकर नाग करते प्रीत,
सौंप दूं किसको खिलौने भावनाओं के?
दूर तक दिखते नहीं जूड़ें घटाओं के.

रूठ मत मेरी उम्र, मत टूट मेरी आस.
ज़िंदगी विश्वास है, विश्वास बस विश्वास,
पोंछते आँसू बिलखती सरिकाओं के.
श्याम आयेंगे ज़रूरी गोपिकाओं के.

दिन गए बीत शर्मीली हवाओं के,
दूर तक दिखते नहीं जूड़ें घटाओं के

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