जीवन में चिंताएँ / अंजू शर्मा

जीवन स्वतः पलटे जाते पृष्ठों वाली
एक किताब न बन जाए,
बोरियत हर अध्याय के अंत पर चस्पा न हो
इसके लिए जरूरी है कुछ सरस बुकटैग्स,
जरूरी है बने रहना, थोड़ा सा नीमपागल
थोड़ा सी गंभीरता
थोड़ा सा बचपना
थोड़ा सी चिंताएँ
और थोड़ा सा सयानापन,
होना ही चाहिए सब कुछ ज़िदगी में पर थोड़ा थोड़ा,

यूं देखा जाए तो जिंदगी वह फिल्म है जिसे समझ आने तक
आप पाते हैं खुद को मध्यांतर में,
ज़िंदगी का अर्थ क्या है और यह सम्मिश्रण है किन पदार्थों का
जूझते हुये लगातार इन सवालों से,
सावधानियों के रैपर में लिपटी जिंदगी पर चिपके
‘फ्रेगाईल, केयरफुल’ के स्टिकर को ताकते रहने में
आप खो देते हैं जीते रहने का परम सुख

अलगनी पर टांग ही दीजिये खाल बनी जिम्मेदारियाँ,
एक दिन कान से पकड़ कर
बंद कर दीजिये कुछ समय के लिए
चिंताओं को अंधेरी काल कोठरी में,
छत की कड़ियाँ गिनते हुये थामती रहे उंगली,
उकसाती रहे, तारे गिनने को खिलंदड़ अनिद्रा,
तब भी जब बगलगीर हो थोड़ा सा उनींदापन,

खुद से खुद का ही ले लेना चाहिए एक त्वरित अपोइण्टमेंट,
चिंताओं के घने अरण्य में खोने से पहले
किसी प्रिय की तलाश में निकले
एक आवारा सरफिरे बादल का हाथ थामते हुये
ठंडी हवा के अलमस्त झोंको
और बारिश की नन्ही-नन्ही बूंदों के बीच
खो देना चाहिए कभी कभी छाता
तकरीबन भूलते हुये कि वह टंगा है वहीं
स्टोर रूम के ठीक सामने वाली दीवार पर

धीमे से बुला लेना चाहिए इशारे से,
घड़ी की चौबीस-घंटा टिक टिक
और मोबाइल की घण्टियों के बीच
बदहवास पेंडुलम बनी जिंदगी को,
मन के सीलन भरे कोने में रोप देने चाहिए
धूप से खिले, प्रथम चुंबन से ताज़ा, कई खुशनुमा किस्से,
कि मन बदल ही जाए ऐसे कुतुबनुमा में
जिसे लुभा पाएँ खुशियों के कई एक यादगार छोटे छोटे पल,

इससे पहले कि जीवन बदल जाए
कब्र पर खुदी जन्म और मृत्यु की तारीखों के
ठीक बीच में लगे एक हाइफन में
सचमुच जी ही लो बिताई गयी
लंबी जिंदगी के कुछ पुरसुकून पल,
जानते हुये भी कि चिंताएँ ही
सुखद भविष्य का रिमोट कंट्रोल हैं,
मान ही लीजिये, चाहे कुछ पलों के लिए ही सही,
चिंताएँ कल्पना का सबसे बड़ा दुरुपयोग भी तो हैं…

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