जगती की मंगलमयी उषा बन / जयशंकर प्रसाद

जगती की मंगलमयी उषा बन,
करुणा उस दिन आई थी,
जिसके नव गैरिक अंचल की प्राची में भरी ललाई थी .
भय- संकुल रजनी बीत गई,
भव की व्याकुलता दूर गई,
घन-तिमिर-भार के लिए तड़ित स्वर्गीय किरण बन आई थी.
खिलती पंखुरी पंकज- वन की,
खुल रही आँख रिषी पत्तन की,
दुख की निर्ममता निरख कुसुम -रस के मिस जो भार आई थी.
कल-कल नादिनी बहती-बहती-
प्राणी दुख की गाथा कहती –
वरूणा द्रव होकर शांति -वारि शीतलता-सी भर लाई थी.
पुलकित मलयानिल कूलो में,
भरता अंजलि था फूलों में ,
स्वागत था अभया वाणी का निष्ठुरता लिये बिदाई थी .
उन शांत तपोवन कुंजो में,
कुटियों, त्रिन विरुध पुंजो में,
उटजों में था आलोक भरा कुसुमित लतिका झुक आई थी.
मृग मधुर जुगाली करते से,
खग कलरव में स्वर भरते से,
विपदा से पूछ रहे किसकी पद्ध्वनी सुनने में आई थी.
प्राची का पथिक चला आता ,
नभ पद- पराग से भर जाता,
वे थे पुनीत परमाणु दया ने जिसने सृष्टि बनाई थी.
तप की तारुन्यमयी प्रतिमा ,
प्रज्ञा पारमिता की गरिमा ,
इस व्यथित विश्व की चेतनता गौतम सजीव बन आई थी.
उस पावन दिन की पुण्यमयी,
स्मृति लिये धारा है धैर्यमयी,
जब धर्म- चक्र के सतत – प्रवर्तन की प्रसन्न ध्वनि छाई थी.
युग-युग की नव मानवता को ,
विस्तृत वसुधा की विभुता को ,
कल्याण संघ की जन्मभूमि आमंत्रित करती आई थी.
स्मृति-चिन्हों की जर्जरता में,
निष्ठुर कर की बर्बरता में,
भूलें हम वह संदेश न जिसने फेरी धर्म दुहाई थी.

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