चौपदी / रमैणी / कबीर

ऊंकार आदि है मूला, राजा परजा एकहिं सूला।
हम तुम्ह मां हैं एकै लोहू, एकै प्रान जीवन है मोहू॥
एकही बास रहै दस मासा, सूतग पातग एकै आसा॥
एकहीं जननीं जान्यां संसारा, कौन ग्यान थैं भये निनारा॥

ग्यांन न पायो बावरे, धरी अविद्या मैड।
सतगुर मिल्या न मुक्ति फल ताथैं खाई बैड॥

बालक ह्नै भग द्वारे आया, भग भुगतान कूँ पुरिष कहावा॥
ग्यांन न सुमिरो निरगुण सारा, बिष थैं बिरंचि न किया बिचारा॥

साध न मिटी जनम की, मरन तुराँनाँ आइ॥
मन क्रम बचन न हरि भज्या, अंकुर बीज नसाइ॥

तिण चारि सुरही उदिक जु पीया, द्वार दूध बछ कूँ दीया।
बछा चूखत उपजी न दया, बछा बाँधि बिछोही मया॥
ताका दूध आप दुहि पीया, ग्यान बिचार कछू नहीं कीया॥
जे कुछ लोगनि सोई किया, माला मंत्रा बादि ही लीया॥
पीया दूध रूध ह्नै आया, मुई गाइ तब दोष लगाया॥
बाकस ले चमरां कूँ दीन्हीं, तुचा रंगाई करौती कीन्हीं॥
ले रूकरौती बैठे संगा, ये देखौ पीछे के रंगा॥
तिहि रूकरौती पाँणी पीया, बहु कुछ पाड़े अचिरज कीया॥

अचिरज कीया लोक मैं, पीया सुहागल नीर॥
इंद्री स्वारथि सब किया, बंध्या भरम सरीर॥

एकै पवन एक ही पांणी, करी रसोई न्यारी जाँनी॥
माटी सूं माटी ले पोती, लागी कहाँ धूं छोती॥
धरती लीपि पवित्रा कीन्ही, छोति उपाय लोक बिचि दीन्हीं॥
याका हम सूं कहौ बिचारा, क्यूँ भव तिरिहौ इहि आचारा॥
ए पाँखंड जीव के भरमाँ, माँनि अमाँनि जीव के करमाँ॥
करि आचार जू ब्रह्म सतावा, नांव बिनां संतोष न पावा॥
सालिगराम सिला करि पूजा, तुलसी तोडि भया नर दूजा॥
ठाकुर ले पाटै पौढ़ावा, भोग लगाइ अरु आप खावा॥
सांच सील का चौका दीजै, भाव भगति कीजै सेवा कीजै॥
भाव भगति की सेवा मांनै, सतगुर प्रकट कहै नहीं छाँनै॥
अनभै उपजि न मन ठहराई, परकीरति मिलि मन न समाई॥
जल लग भाव भगति नहीं करिहौ, तब लग भवसागर क्यूँ तिरिहौ॥

भाव भगति बिसवास बिनु, कटै न संसै सूल॥
कहै कबीर हरि भगति बिन, मूकति नहीं रे मूल॥

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