चितवन का जादू / रामनरेश त्रिपाठी

आँख लगती है तब आँख लगती ही नहीं
प्यास रहती है लगी सजल नयन में।
मन लगता ही नहीं वन में भवन में न,
सुंदर सुमन से सजाए उपवन में॥
रुचि रह जाती नहीं खान में न पान में,
न गान में न मान में न ध्यान में न धन में।
चित्र में खचित-सा अचेत रहता है नित,
जाता है चिपक जब चित चितवन में॥

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