किताब /जहाँ एक उजाले की रेखा खिंची है/ नंद चतुर्वेदी

उस तरह मैं नहीं पढ़ सका
जिस तरह चाहिए
इस किताब में लिखी इबारत

यह किताब जैसी भी बनी हो
जिस किसी भी भाषा में लिखी गयी हो
लेकिन जब कभी पढ़ी जाएगी
बहुत कुछ विलुप्त हो जाएगा

मैं ही कभी
गा-गा कर पढ़ने लगूँगा
कभी अटक-अटक कर
मैं ही बदल दूगाँ
उद्दण्डतापूर्वक कभी कुछ

हँसने लगूँगा
इस तरह के शब्दों के
हिज्जे लिखी देखकर

बहरहाल उस तरह नहीं पढूँगा
जिस तरह चाहीए

बदल-बदल कर पढ़ने से
किताब का कुछ भी नष्ट नहीं होगा
बच जाएगा जितना बच सकता है।

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