कहानी हो कोई भी तेरा क़िस्सा हो ही जाती है / ‘फ़य्याज़’ फ़ारुक़ी

कहानी हो कोई भी तेरा क़िस्सा हो ही जाती है
कोई तस्वीर देखूँ तेरा चेहरा हो ही जाती है

तेरी यादों की लहरें घेर लेती हैं ये दिल मेरा
ज़मीं घिर कर समंदर में जज़ीरा हो ही जाती है

गई शब चाँद जैसा जब चमकता है ख़याल उस का
तमन्ना मेरी इक छोटा सा बच्चा हो ही जाती है

सजा है ताज मेरे सर पे लेकिन ये नज़र मेरी
जो उस की सम्त जाती है तो कासा हो ही जाती है

जतन करता हूँ कितने रोक लूँ सैलाब आँखों में
मगर तामीर मेरी ये शिकस्ता हो ही जाती है

ये सोचा है कि तुझ को सोचना अब छोड़ दूँगा मैं
ये लग्ज़िश मुझ से लेकिन बे-इरादा हो ही जाती है

जो है ‘फ़य्याज़’ उस को देख कर मबहूत हैरत क्या
तड़पती है जो बिज़ली आँख ख़ीरा हो ही जाती है

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