एक बीती हुई रात को याद करते हुए / वसंत त्रिपाठी

रात
तुम लौट गई चुपचाप
मुझे अकेला, निस्संग छोड़ कर
भर कर प्यार की कई-कई स्मृतियाँ

तुममें हिचकोले खाता हुआ
मैंने चूमा पत्नी का माथा
होंठों पर एक भरपूर चुम्बन
अंधेरे में टटोलते हुए किया समूचे शरीर का स्पर्श

रात, जब तुम गहरा रही थी
मैं प्यार की दैहिक-क्रिया में लीन था
असंख्य लहरों पर सवार
किसी दिव्य पुरुष की तरह

पुरुष होना उस रात मुझे
वैसे नहीं लगा जैसे लगता रहा है मनु को
न ही स्त्री किसी सजायाफ़्ता क़ैदी की तरह लगी

रात
तुम्हारे गहराते आँचल की छोर को मुँह में दबाए
मैंने सुनी असंख्य कीटों की ज़िन्दा आवाज़ें
चौराहे पर चाय का टपरा लगाने वाले का स्टोव
नीली लौ के साथ सीने में दहकता रहा
रेल की पटरी पर ट्रेन दौड़ाते ड्राइवरों की उनींदी आँखें
लालटेन की तरह दिपदिपाती रहीं भीतर

मैंने अतीत के गुनाहों और
भविष्य के सम्भावित गुनाहों से
शून्य को ताकते हुए
देर तक जिरह की
और फ़ैसले को अनिर्णीत ही छोड़ कर
उस देश के बारे में ईमानदारी से सोचा
जिसमें रहता हूँ मैं

मुझे याद आए खिले हुए फूलों के कई-कई रंग
अंततः मैंने तय किया
कि सुबह किसी एक अपरिचित फूल के बारे में
पूरी जानकारी लूंगा

रात
जिस वक़्त तुम मुझे
अलविदा कहने को तैयार खड़ी थी
ट्रेन की खिड़की पर बैठे किसी मुसाफ़िर की तरह
मैंने कहा
तुम फिर आओगी, मुझे पता है’
और यह भी कि तुम
अंधेरा नहीं हो केवल’

बहुत उजली हो, धुली-धुली
प्यार की अनंत आवाज़ों से सजी
सपनों की रंगीन दुनिया की धरातल’

और प्रेम में डूबी एक स्त्री की तरह