आषाढ़ का पहला दिवस / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

करता विवश
उमड़ी घटा को देखकर
चूमूँ लहराते केश को
पी लूँ तपन, सीझूँ सपन
गदरा उठूँ
इतरा उठूँ
पातीम्बरी आकाश में
उलझी हुई
नीलाम्बरी के छोर-सा,
टपकूँ निबौरी-सा निपट
थिरकूँ विसुध वन-मोर-सा,
बौछार के उल्लास में
सोंधी धारा की गंध को
पी लूँ तृषित गजराज-सा
झूमूँ सहज
हर सल्लकी औ’ शाल की
मदविह्वला नत डाल पर
निर्व्याज-सा
झपटूँ शिकारी बाज बन
जर्जर व्यवस्था के जलपते गिद्ध पर
कर विद्ध ख़ूनी चंचु
पंजे तोड़ पैने
जीर्ण डैने ध्वस्त कर
दूँ मुक्त कर आकाश
हंसों औ’ बगुलियों के लिए
नवगर्भ-धारण के
अमित आयाम में,
गोरी छलकती
रस-कलश में भीजती
बिछुए बजाती झींगुरों के
चल पड़े उस गौल पर
जिसकी हुमसती आटहों में
धुकधुकी साधे
कहीं दुबकी खड़ी हो
नटखटी गोपाल की,
हर प्रात में
गोपाल से पहले उठे
हलधर हठी
जोते धरा की पीर को
उस नीर के आह्वान में
जो लहलहाए
लू-लपट में झुलसते इन्सान को
चूनर उड़ाती, खिलखिलाती
झूमती फसलें
छितिज के छोर से
उठती दिखतें
लूटती दिखें बौछार के हर तार में
द्यावा-धरा की प्रीति की
घुमड़न समेटे स्रोत-सा
अल्हड़ छयल
उद्ग्रीव कजरारे दृगों को चूमता
बरबस बढ़ जाता हवस

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