आँख / हेमन्त कुकरेती

देखने के लिए नज़र चाहिए
ठीक हो दूर और पास की तो कहना ही क्या

बाज़ार को दूर से देखने पर भी लगता है डर
मेरा घर तो बाज़ार के इतने पास है
कि उजड़ी हुई दुकान नज़र आता है

ठेठ पड़ोस का घर हो जाता है सुदूर का गृह
चीख़ता है कि उसकी कक्षा से दूर रहूँ
जब कि मेरे घर के हर कोने की है अपनी परिधि

कई बार ऐसा हुआ कि नहाने के लिए पानी लेने गया
और साबुन के भाव बिकते-बिकते बचा
यह तभी हुआ कि मैंने अपनी क़ीमत नहीं लगाय़ी
खुद को बिकने से बचाये रखना ऱोज का हादसा

दूर से दो विदेशी पैर आकर
उठाईगीरी पर उतर आते हैं अपनी नग्नता दिखाकर
उसने लड़ना मेरी मज़बूरी है या
उजागर होता है ओछापन

सोने के लिए दिनभर की नींद मुफ़्त में देनी पड़ती है मुझे
जागने के लिए सपने हैं, उनसे ही कहता हूँ
इतने हल्ले में आओगे तो कैसे सुन सकूँगा तुम्हें पहचानूँगा कैसे
वे जाने कैसे पहचान लेते हैं मुझे
किसी दिन कुचले हुए मिलेंगे मेरे सपने एक दुकान के नीचे
दूसरी पर उनका सौदा हो रहा होगा

कैसा विनिमय है चीज़ों का
गेहूँ कपास न हुआ सिन्थेटिक कपड़ा होकर बिकने लगा
बच्चे जिन बिस्कुटों के बदले राज़ी होते थे अपनी नींद तोड़ने के लिए
वे रूमाल हो गय़े
फिर भी पैण्ट इतनी ऊँची हो गयी कि भूख जितनी ढीठ
कमीज़ें इतनी महँगी कि उन्हें पहनने की ज़रूरत ही नहीं रही

आदमी भी वस्तु हो गया, देखा तो सोचा
देखने के लिए आँख चाहिए ऐसी जो पैसे के पार देख सके

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *