अन्दर ऊँची ऊँची लहरें उठती हैं / सतीश बेदाग़

अन्दर ऊँची-ऊँची लहरें उठती हैं
काग़ज़ के साहिल पे कहाँ उतरती हैं

माज़ी की शाखों से लम्हे बरसते हैं
ज़हन के अन्दर तेज़ हवाएँ चलती हैं

आँखों को बादल बारिश से क्या लेना
ये गलियां अपने पानी से भरती हैं

बाढ़ में बह जाती हैं दिल की दीवारें
तब आँखों से इक दो बूंदें झरती हैं

अन्दर तो दीवान सा इक छप जाता है
काग़ज़ पर एहसान दो बूंदें करती हैं

रुकी-रुकी रहती हैं आँखों में बूंदें
रुखसारों पर आके कहाँ ठहरती हैं

तेरे तसव्वुर से जब शे’र निकलते हैं
इक-दो परियाँ आगे-पीछे रहती हैं

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