अनाज / अली सरदार जाफ़री

मेरी आशिक़ हैं किसानों की हसीं कन्याएँ
जिनके आँचल ने मुहब्बत से उठाया मुझको
खेत को साफ़ किया, नर्म किया मिट्टी को
और फिर कोख़ में धरती की सुलाया मुझको
ख़ाक-दर-ख़ाक हर-इक तह में टटोला लेकिन
मौत के ढूँढ़ते हाथों ने न पाया मुझको
ख़ाक से लेके उठा मुझको मिरा ज़ौके़-नुमू[1]
सब्ज़ कोंपल ने हथेली में छुपाया मुझको
मौत से दूर मगर मौत की इक नींद के बाद
जुम्बिशे-बादे-बहारी ने जगाया मुझको
बालियाँ फूलीं तो खेतों पे जवानी आयी
उन परीज़ादों ने बालों में सजाया मुझको
मेरे सीने में भरा सुर्ख़ किरन ने सोना
अपने झूले में हवाओं ने झुलाय मुझको
मैं रकाबी में, प्यालों में महक सकता हूँ
चाहिए बस लबो-रुख़सार[2] का साया मुझको

मेरी आ़शिक़ हैं किसानों की हसीं कन्याएँ
गोद से उनकी कोई छीन के लाया मुझको
हवसे-ज़र ने मुझे आग में फूँका है कभी
कभी बाज़ार में नीलाम चढ़ाया मुझको
कैद रखा कभी लोहे में कभी पत्थर में
कभी गोदामों की क़ब्रों में दबाया मुझको
सी के बोरों में मुझे फेंका है तहख़ानों में
चोर बाज़ार कभी रास न आया मुझको
वो तरसते हैं मुझे और मैं तरसता हूँ उन्हें
जिनके हाथों की हरारत ने उगाया मुझको
क्या हुए आज मेरे नाज़ उठानेवाले
है कहाँ क़ैदे-गुलामी से छुड़ानेवाले

शब्दार्थ:
1. विकसित होने का आनन्द
2. होंठ और गाल

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *