कनुप्रिया – पाँचवाँ गीत / धर्मवीर भारती

यह जो मैं गृहकाज से अलसा कर अक्सर
इधर चली आती हूँ
और कदम्ब की छाँह में शिथिल, अस्तव्यस्त
अनमनी-सी पड़ी रहती हूँ….

यह पछतावा अब मुझे हर क्षण
सालता रहता है कि
मैं उस रास की रात तुम्हारे पास से लौट क्यों आयी ?
जो चरण तुम्हारे वेणुवादन की लय पर
तुम्हारे नील जलज तन की परिक्रमा दे कर नाचते रहे
वे फिर घर की ओर उठ कैसे पाये
मैं उस दिन लौटी क्यों-
कण-कण अपने को तुम्हें दे कर रीत क्यों नहीं गयी ?
तुम ने तो उस रास की रात
जिसे अंशत: भी आत्मसात् किया
उसे सम्पूर्ण बना कर
वापस अपने-अपने घर भेज दिया
पर हाय वही सम्पूर्णता तो
इस जिस्म के एक-एक कण में
बराबर टीसती रहती है,
तुम्हारे लिए !

कैसे हो जी तुम ?
जब मैं जाना ही नहीं चाहती
तो बाँसुरी के एक गहरे अलाप से
मदोन्मत्त मुझे खींच बुलाते हो

और जब वापस नहीं आना चाहती
तब मुझे अंशत: ग्रहण कर
सम्पूर्ण बना कर लौटा देते हो !

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