रजनीगंधा / जयशंकर प्रसाद

दिनकर अपनी किरण-स्‍वर्ण से रंजित करके पहुंचे प्रमुदित हुए प्रतीची पास सँवर के प्रिय-संगम से सुखी हुई आनन्द मानती अरूण-राग-रंजित कपोल से सोभा पाती दिनकर-कर से व्यथित बिताया नीरस वासर वही हुए अति मुदित विहंगम अवसर पाकर कोमल कल-रव किया बड़ा आनन्द मनाया किया नीड़ में वास, जिन्हें निज हाथ बनाया देखो मन्थर गति से… Continue reading रजनीगंधा / जयशंकर प्रसाद

भक्तियोग / जयशंकर प्रसाद

दिननाथ अपने पीत कर से थे सहारा ले रहे उस श्रृंग पर अपनी प्रभा मलिना दिखाते ही रहे वह रूप पतनोन्मुख दिवाकर का हुआ पीला अहो भय और व्याकुलता प्रकट होती नहीं किसकी कहो जिन-पत्तियों पर रश्‍िमयाँ आश्रम ग्रहण करती रहीं वे पवन-ताड़ित हो सदा ही दूर को हटती रहीं सुख के सभी साथी दिखाते… Continue reading भक्तियोग / जयशंकर प्रसाद

जलद-आहृवान / जयशंकर प्रसाद

शीघ्र आ जाओ जलद ! स्वागत तुम्हारा हम करें ग्रीष्म से सन्तप्त मन के ताप को कुछ कम करें है धरित्री के उरस्थल में जलन तेरे विना शून्य था आकाश तेरे ही जलद ! घेरे विना मानदण्ड-समान जो संसार को है मापता लहू की पंचाग्नि जो दिन-रात ही है तापता जीव जिनके आश्रमो की-सी गुहा… Continue reading जलद-आहृवान / जयशंकर प्रसाद

ग्रीष्म का मध्यान्ह / जयशंकर प्रसाद

विमल व्योम में देव-दिवाकर अग्नि-चक्र से फिरते हैं किरण नही, ये पावक के कण जगती-तल पर गिरते हैं छाया का आश्रय पाने को जीव-मंडली गिरती है चण्ड दिवाकर देख सती-छाया भी छिपती फिरती है प्रिय वसंत के विरह ताप से घरा तप्त हो जाती है तृष्णा हो कर तृषित प्यास-ही-प्यास पुकार मचाती है स्वेद धूलि-कण… Continue reading ग्रीष्म का मध्यान्ह / जयशंकर प्रसाद

हृदय-वेेदना / जयशंकर प्रसाद

सुनो प्राण-प्रिय, हृदय-वेदना विकल हुई क्या कहती है तव दुःसह यह विरह रात-दिन जैसे सुख से सहती है मै तो रहता मस्त रात-दिन पाकर यही मधुर पीड़ा वह होकर स्वच्छन्द तुम्हारे साथ किया करती क्रीड़ा हृदय-वेदना मधुर मूर्ति तब सदा नवीन बनाती है तुम्हें न पाकर भी छाया में अपना दिवस बिताती है कभी समझकर… Continue reading हृदय-वेेदना / जयशंकर प्रसाद

मर्म-कथा / जयशंकर प्रसाद

प्रियतम ! वे सब भाव तुम्हारे क्या हुए प्रेम-कंज-किजल्क शुष्क कैसे हए हम ! तुम ! इतना अन्तर क्यों कैसे हुआ हा-हा प्राण-अधार शत्रु कैसे हुआ कहें मर्म-वेदना दुसरे से अहो- ‘‘जाकर उससे दुःख-कथा मेरी कहो’’ नही कहेंगे, कोप सहेंगे धीर हो दर्द न समझो, क्या इतने बेपीर हो चुप रहकर कह दुँगा मैं सारी… Continue reading मर्म-कथा / जयशंकर प्रसाद

नव वसंत / जयशंकर प्रसाद

पूर्णिमा की रात्रि सुखमा स्वच्छ सरसाती रही इन्दु की किरणें सुधा की धार बरसाती रहीं युग्म याम व्यतीत है आकाश तारों से भरा हो रहा प्रतिविम्ब-पूरित रम्य यमुना-जल-भरा कूल पर का कुसुम-कानन भी महाकमनीय हैं शुभ्र प्रासादावली की भी छटा रमणीय है है कहीं कोकिल सघन सहकार को कूंजित किये और भी शतपत्र को मधुकर… Continue reading नव वसंत / जयशंकर प्रसाद

प्रथम प्रभात / जयशंकर प्रसाद

मनोवृत्तियाँ खग-कुल-सी थी सो रही, अन्तःकरण नवीन मनोहर नीड़ में नील गगन-सा शान्त हृदय भी हो रहा, बाह्य आन्तरिक प्रकृति सभी सोती रही स्पन्दन-हीन नवीन मुकुल-मन तृष्ट था अपने ही प्रच्छन्न विमल मकरन्द से अहा! अचानक किस मलयानिल ने तभी, (फूलों के सौरभ से पूरा लदा हुआ)- आते ही कर स्पर्श गुदगुदाया हमें, खूली आँख,… Continue reading प्रथम प्रभात / जयशंकर प्रसाद

करूणा-कुंज / जयशंकर प्रसाद

क्लान्त हुआ सब अंग शिथिल क्यों वेष है मुख पर श्रम-सीकर का भी उन्मेष है भारी भोझा लाद लिया न सँभार है छल छालों से पैर छिले न उबार है चले जा रहे वेग भरे किस ओर को मृग-मरीचिका तुुम्हें दिखाती छोर को किन्तु नहीं हे पथिक ! वह जल है नहीं बालू के मैदान… Continue reading करूणा-कुंज / जयशंकर प्रसाद

महाक्रीड़ा / जयशंकर प्रसाद

सुन्दरी प्रााची विमल ऊषा से मुख धोने को है पूर्णिमा की रात्रि का शश्‍ाि अस्त अब होने को है तारका का निकर अपनी कान्ति सब खोने को है स्वर्ण-जल से अरूण भी आकाश-पट धोने को है गा रहे हैं ये विहंगम किसके आने कि कथा मलय-मारूत भी चला आता है हरने को व्यथा चन्द्रिका हटने… Continue reading महाक्रीड़ा / जयशंकर प्रसाद