निशीथ-नदी / जयशंकर प्रसाद

विमल व्योम में तारा-पुंज प्रकट हो कर के नीरव अभिनय कहो कर रहे हैं ये कैसा प्रेम के दृग-तारा-से ये निर्निमेष हैं देख रहे-से रूप अलौकिक सुन्दर किसका दिशा, धारा, तरू-राजि सभी ये चिन्तित-से हैं शान्त पवन स्वर्गीय स्पर्श से सुख देता है दुखी हृदय में प्रिय-प्रतीति की विमल विभा-सी तारा-ज्योति मिल है तम में,… Continue reading निशीथ-नदी / जयशंकर प्रसाद

दलित कुमुदिनी / जयशंकर प्रसाद

अहो, यही कृत्रिम क्रीड़ासर-बीच कुमुदिनी खिलती थी हरे लता-कुंजो की छाया जिसको शीतल मिलती थी इन्दु-किरण की फूलछड़ी जिसका मकरन्द गिराती थी चण्ड दिवाकर की किरणें भी पता न जिसका पाती थीं रहा घूमता आसपास में कभी न मधुर मृणाल छुआ राजहंस भी जिस सुन्दरता पर मोहित सम मत्त हुआ जिसके मधुर पराग-अन्ध हो मधुप… Continue reading दलित कुमुदिनी / जयशंकर प्रसाद

एकान्त में / जयशंकर प्रसाद

आकाश श्री-सम्पन्न था, नव नीरदो से था घिरा संध्या मनोहर खेलती थी, नील पट तम का गिरा यह चंचला चपला दिखाती थी कभी अपनी कला ज्यों वीर वारिद की प्रभामय रत्नावाली मेखला हर और हरियाली विटप-डाली कुसुम से पूर्ण है मकरन्दमय, ज्यों कामिनी के नेत्र मद से पूर्ण है यह शैला-माला नेत्र-पथ के सामने शोभा… Continue reading एकान्त में / जयशंकर प्रसाद

सौन्दर्य / जयशंकर प्रसाद

नील नीरद देखकर आकाश में क्यो खड़ा चातक रहा किस आश में क्यो चकोरों को हुआ उल्लास है क्या कलानिधि का अपूर्व विकास है क्या हुआ जो देखकर कमलावली मत्त होकर गूँजती भ्रमरावली कंटको में जो खिला यह फूल है देखते हो क्यों हृदय अनुकूल है है यही सौन्दर्य में सुषमा बड़ी लौह-हिय को आँच… Continue reading सौन्दर्य / जयशंकर प्रसाद

कोकिल / जयशंकर प्रसाद

नया हृदय है, नया समय है, नया कुंज है नये कमल-दल-बीच गया किंजल्क-पुंज है नया तुम्हारा राग मनोहर श्रुति सुखकारी नया कण्ठ कमनीय, वाणि वीणा-अनुकारी यद्यपि है अज्ञात ध्वनि कोकिल ! तेरी मोदमय तो भी मन सुनकर हुआ शीतल, शांत, विनोदमय विकसे नवल रसाल मिले मदमाते मधुकर आलबाल मकरन्द-विन्दु से भरे मनोहर मंजु मलय-हिल्लोल हिलाता… Continue reading कोकिल / जयशंकर प्रसाद

बाल-कीड़ा / जयशंकर प्रसाद

हँसते हो तो हँसो खूब, पर लोट न जाओ हँसते-हँसते आँखों से मत अश्रु बहाओ ऐसी क्या है बात ? नहीं जो सुनते मेरी मिली तुम्हें क्या कहो कहीं आनन्द की ढेरी ये गोरे-गोरे गाल है लाल हुए अति मोद से क्या क्रीड़ा करता है हृदय किसी स्वतंत्र विनोद से उपवन के फल-फूल तुम्हारा मार्ग… Continue reading बाल-कीड़ा / जयशंकर प्रसाद

ठहरो / जयशंकर प्रसाद

वेेगपूर्ण है अश्‍व तुम्हारा पथ में कैसे कहाँ जा रहे मित्र ! प्रफुल्लित प्रमुदित जैसे देखो, आतुर दृष्टि किये वह कौन निरखता दयादृष्टि निज डाल उसे नहि कोई लखता ‘हट जाओ’ की हुंकार से होता है भयभीत वह यदि दोगे उसको सान्त्वना, होगा मुदित सप्रीत वह उसे तुम्हारा आश्रय है, उसको मत भूलो अपना आश्रित… Continue reading ठहरो / जयशंकर प्रसाद

जल-विहारिणी / जयशंकर प्रसाद

चन्द्रिका दिखला रही है क्या अनूपम सी छटा खिल रही हैं कुसुम की कलियाँ सुगन्धो की घटा सब दिगन्तो में जहाँ तक दृष्टि-पथ की दौड़ है सुधा का सुन्दर सरोवर दीखता बेजोड़ है रम्य कानन की छटा तट पर अनोखी देख लो शान्त है, कुछ भय नहीं है, कुछ समय तक मत टलो अन्धकार घना… Continue reading जल-विहारिणी / जयशंकर प्रसाद

मलिना / जयशंकर प्रसाद

नव-नील पयोधर नभ में काले छाये भर-भरकर शीतल जल मतवाले धाये लहराती ललिता लता सुबाल लजीली लहि संग तरून के सुन्दर बनी सजीली फूलो से दोनों भरी डालियाँ हिलतीं दोनों पर बैठी खग की जोड़ी मिलती बुलबुल कोयल हैं मिलकर शोर मचाते बरसाती नाले उछल-उछल बल खाते वह हरी लताओ की सुन्दर अमराई बन बैठी… Continue reading मलिना / जयशंकर प्रसाद

सरोज / जयशंकर प्रसाद

अरूण अभ्युदय से हो मुदित मन प्रशान्त सरसी में खिल रहा है प्रथम पत्र का प्रसार करके सरोज अलि-गन से मिल रहा है गगन मे सन्ध्या की लालिमा से किया संकुचित वदन था जिसने दिया न मकरन्द प्रेमियो को गले उन्ही के वो मिल रहा है तुम्हारा विकसित वदन बताता, हँसे मित्र को निरख के… Continue reading सरोज / जयशंकर प्रसाद