क्यों जीवन-धन ! ऐसा ही है न्याय तुम्हारा क्या सर्वत्र लिखते हुए लेखनी हिलती, कँमता जाता है यह पत्र औरों के प्रति प्रेम तुम्हारा, इसका मुझको दुःख नहीं जिसके तुम हो एक सहारा, उसको भूल न जाव कहीं निर्दय होकर अपने प्रति, अपने को तुमको सौंप दिया प्रेम नहीं, करूणा करने को क्षण-भर तुमने समय… Continue reading प्रियतम / जयशंकर प्रसाद
Category: Jaishankar Prasad
गंगा सागर / जयशंकर प्रसाद
प्रिय मनोरथ व्यक्त करें कहो जगत्-नीरवता कहती ‘नहीं’ गगन में ग्रह गोलक, तारका सब किये तन दृष्टि विचार में पर नहीं हम मौन न हो सकें कह चले अपनी सरला कथा पवन-संसृति से इस शून्य में भर उठे मधुर-ध्वनि विश्व में ‘‘यह सही, तुम ! सिन्धु अगाध हो हृदय में बहु रत्न भरे पड़े प्रबल… Continue reading गंगा सागर / जयशंकर प्रसाद
हाँ, सारथे ! रथ रोक दो / जयशंकर प्रसाद
हाँ, सारथे ! रथ रोक दो, विश्राम दो कुछ अश्व को यह कुंज था आनन्द-दायक, इस हृदय के विश्व को यह भूमि है उस भक्त की आराधना की साधिका जिसको न था कुछ भय यहाँ भवजन्य आधि व्याधि का जब था न कुछ परिचित सुधा से हृदय वन-सा था बना तब देखकर इस कुंज को… Continue reading हाँ, सारथे ! रथ रोक दो / जयशंकर प्रसाद
रमणी-हृदय / जयशंकर प्रसाद
सिन्धु कभी क्या बाड़वाग्नि को यों सह लेता कभी शीत लहरों से शीतल ही कर देता रमणी-हृदय अथाह जो न दिखालाई पड़ता तो क्या जल होकर ज्वाला से यों फिर लड़ता कौन जानता है, नीचे में, क्या बहता है बालू में भी स्नेह कहाँ कैसे रहता है फल्गू की है धार हृदय वामा का जैसे… Continue reading रमणी-हृदय / जयशंकर प्रसाद
विरह / जयशंकर प्रसाद
प्रियजन दृग-सीमा से जभी दूर होते ये नयन-वियोगी रक्त के अश्रु रोते सहचर-सुखक्रीड़ा नेत्र के सामने भी प्रति क्षण लगती है नाचने चित्त में भी प्रिय, पदरज मेघाच्छन्न जो हो रहा हो यह हृदय तुम्हारा विश्व को खो रहा हो स्मृति-सुख चपला की क्या छटा देखते हो अविरल जलधारा अश्रु में भींगते हो हृदय द्रवित… Continue reading विरह / जयशंकर प्रसाद
खंजन / जयशंकर प्रसाद
व्याप्त है क्या स्वच्छ सुषमा-सी उषा भूलोक में स्वर्णमय शुभ दृश्य दिखलाता नवल आलोक में शुभ्र जलधर एक-दो कोई कहीं दिखला गये भाग जाने का अनिल-निर्देश वे भी पा गये पुण्य परिमल अंग से मिलने लगा उल्लास से हंस मानस का हँसा कुछ बोलकर आवास से मल्लिका महँकी, अली-अवली मधुर-मधु से छकी एक कोने की… Continue reading खंजन / जयशंकर प्रसाद
पतित पावन / जयशंकर प्रसाद
पतित हो जन्म से, या कर्म ही से क्यों नहीं होवे पिता सब का वही है एक, उसकी गोद में रोवे पतित पदपद्म में होवे ताे पावन हो जाता है पतित है गर्त में संसार के जो स्वर्ग से खसका पतित होना कहो अब कौन-सा बाकी रहा उसका पतित ही को बचाने के लिये, वह… Continue reading पतित पावन / जयशंकर प्रसाद
याचना / जयशंकर प्रसाद
जब प्रलय का हो समय, ज्वालामुखी निज मुख खोल दे सागर उमड़ता आ रहा हो, शक्ति-साहस बोल दे ग्रहगण सभी हो केन्द्रच्युत लड़कर परस्पर भग्न हों उस समय भी हम हे प्रभो ! तव पदृमपद में लग्न हो जब शैल के सब श्रृंग विद्युद़ वृन्द के आघात से हों गिर रह भीषण मचाते विश्व में… Continue reading याचना / जयशंकर प्रसाद
तुम्हारा स्मरण / जयशंकर प्रसाद
सकल वेदना विस्मृत होती स्मरण तुम्हारा जब होता विश्वबोध हो जाता है जिससे न मनुष्य कभी रोता आँख बंद कर देखे कोई रहे निराले में जाकर त्रिपुटी में, या कुटी बना ले समाधि में खाये गोता खड़े विश्व-जनता में प्यारे हम तो तुमको पाते हैं तुम ऐसे सर्वत्र-सुलभ को पाकर कौन भला खोता प्रसन्न है… Continue reading तुम्हारा स्मरण / जयशंकर प्रसाद
विनय / जयशंकर प्रसाद
बना लो हृदय-बीच निज धाम करो हमको प्रभु पूरन-काम शंका रहे न मन में नाथ रहो हरदम तुम मेरे साथ अभय दिखला दो अपना हाथ न भूलें कभी तुम्हारा नाम बना लो हृदय-बीच निज धाम मिटा दो मन की मेरे पीर धरा दो धर्मदेव अब धीर पिला दो स्वच्छ प्रेममय नीर बने मति सुन्दर लोक-ललाम… Continue reading विनय / जयशंकर प्रसाद