संघर्ष / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

श्रद्धा का था स्वप्न किंतु वह सत्य बना था, इड़ा संकुचित उधर प्रजा में क्षोभ घना था। भौतिक-विप्लव देख विकल वे थे घबराये, राज-शरण में त्राण प्राप्त करने को आये। किंतु मिला अपमान और व्यवहार बुरा था, मनस्ताप से सब के भीतर रोष भरा था। क्षुब्ध निरखते वदन इड़ा का पीला-पीला, उधर प्रकृति की रुकी… Continue reading संघर्ष / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

स्वप्न / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

कामायनी सकल अपना सुख स्वप्न बना-सा देख रही, युग-युग की वह विकल प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही- जो कुसुमों के कोमल दल से कभी पवन पर अकिंत था, आज पपीहा की पुकार बन- नभ में खिंचती रेख रही। इड़ा अग्नि-ज्वाला-सी आगे जलती है उल्लास भरी, मनु का पथ आलोकित करती विपद-नदी में बनी तरी,… Continue reading स्वप्न / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

स्वप्न / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

संध्या अरुण जलज केसर ले अब तक मन थी बहलाती, मुरझा कर कब गिरा तामरस, उसको खोज कहाँ पाती क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता मलिन कालिमा के कर से, कोकिल की काकली वृथा ही अब कलियों पर मँडराती। कामायनी-कुसुम वसुधा पर पड़ी, न वह मकरंद रहा, एक चित्र बस रेखाओं का, अब उसमें है रंग… Continue reading स्वप्न / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

इड़ा / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

वह प्रेम न रह जाये पुनीत अपने स्वार्थों से आवृत हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत सारी संसृति हो विरह भरी, गाते ही बीतें करुण गीत आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो क्षितिज निराशा सदा रक्त तुम राग-विराग करो सबसे अपने को कर शतशः विभक्त मस्तिष्क हृदय के हो विरुद्ध, दोनों में हो सद्भाव नहीं वह चलने को जब… Continue reading इड़ा / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

इड़ा / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

“किस गहन गुहा से अति अधीर झंझा-प्रवाह-सा निकला यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर ले साथ विकल परमाणु-पुंज। नभ, अनिल, अनल, भयभीत सभी को भय देता। भय की उपासना में विलीन प्राणी कटुता को बाँट रहा। जगती को करता अधिक दीन निर्माण और प्रतिपद-विनाश में। दिखलाता अपनी क्षमता संघर्ष कर रहा-सा सब से। सब से विराग सब… Continue reading इड़ा / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

ईर्ष्या / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

“चमड़े उनके आवरण रहे ऊनों से चले मेरा काम। वे जीवित हों मांसल बनकर हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम। वे द्रोह न करने के स्थल हैं जो पाले जा सकते सहेतु। पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं तो भव-जलनिधि में बनें सेतु।” “मैं यह तो मान नहीं सकता सुख-सहज लब्ध यों छूट जायँ। जीवन का… Continue reading ईर्ष्या / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

ईर्ष्या / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

पल भर की उस चंचलता ने खो दिया हृदय का स्वाधिकार। श्रद्धा की अब वह मधुर निशा फैलाती निष्फल अंधकार। मनु को अब मृगया छोड़, नहीं रह गया और था अधिक काम। लग गया रक्त था उस मुख में हिंसा-सुख लाली से ललाम। हिंसा ही नहीं, और भी कुछ वह खोज रहा था मन अधीर।… Continue reading ईर्ष्या / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

कर्म / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

“जीवन के वे निष्ठुर दंशन जिनकी आतुर पीड़ा। कलुष-चक्र सी नाच रही है बन आँखों की क्रीड़ा। स्खलन चेतना के कौशल का भूल जिसे कहते हैं। एक बिंदु जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं। आह वही अपराध जगत की दुर्बलता की माया। धरणी की वर्ज़ित मादकता संचित तम की छाया। नील-गरल से भरा हुआ… Continue reading कर्म / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

कर्म / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी सोम लता तब मनु को। चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर उसने जीवन धनु को। हुए अग्रसर से मार्ग में छुटे-तीर-से-फिर वे। यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से रह न सके अब थिर वे। भरा कान में कथन काम का मन में नव अभिलाषा। लगे सोचने मनु-अतिरंज़ित उमड़ रही थी आशा। ललक रही थी… Continue reading कर्म / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

लज्जा / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

“फूलों की कोमल पंखुडियाँ बिखरें जिसके अभिनंदन में। मकरंद मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में। कोमल किसलय मर्मर-रव-से जिसका जयघोष सुनाते हों। जिसमें दुख-सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते हों। उज्ज्वल वरदान चेतना का सौंदर्य जिसे सब कहते हैं। जिसमें अनंत अभिलाषा के सपने सब जगते रहते हैं। मैं उसी चपल की… Continue reading लज्जा / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद