आँसू / जयशंकर प्रसाद / पृष्ठ १

इस करुणा कलित हृदय में अब विकल रागिनी बजती क्यों हाहाकार स्वरों में वेदना असीम गरजती? मानस सागर के तट पर क्यों लोल लहर की घातें कल कल ध्वनि से हैं कहती कुछ विस्मृत बीती बातें? आती हैं शून्य क्षितिज से क्यों लौट प्रतिध्वनि मेरी टकराती बिलखाती-सी पगली-सी देती फेरी? क्यों व्यथित व्योम गंगा-सी छिटका… Continue reading आँसू / जयशंकर प्रसाद / पृष्ठ १

आनंद / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

तब वृषभ सोमवाही भी अपनी घंटा-ध्वनि करता, बढ चला इडा के पीछे मानव भी था डग भरता। हाँ इडा आज भूली थी पर क्षमा न चाह रही थी, वह दृश्य देखने को निज दृग-युगल सराह रही थी चिर-मिलित प्रकृति से पुलकित वह चेतन-पुरूष-पुरातन, निज-शक्ति-तरंगायित था आनंद-अंबु-निधि शोभन। भर रहा अंक श्रद्धा का मानव उसको अपना… Continue reading आनंद / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

आनंद / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

चलता था-धीरे-धीरे वह एक यात्रियों का दल, सरिता के रम्य पुलिन में गिरिपथ से, ले निज संबल। या सोम लता से आवृत वृष धवल, धर्म का प्रतिनिधि, घंटा बजता तालों में उसकी थी मंथर गति-विधि। वृष-रज्जु वाम कर में था दक्षिण त्रिशूल से शोभित, मानव था साथ उसी के मुख पर था तेज़ अपरिमित। केहरि-किशोर… Continue reading आनंद / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

रहस्य / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

चिर-वसंत का यह उदगम है, पतझर होता एक ओर है, अमृत हलाहल यहाँ मिले है, सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।” “सुदंर यह तुमने दिखलाया, किंतु कौन वह श्याम देश है? कामायनी बताओ उसमें, क्या रहस्य रहता विशेष है” “मनु यह श्यामल कर्म लोक है, धुँधला कुछ-कुछ अधंकार-सा सघन हो रहा अविज्ञात यह देश, मलिन है… Continue reading रहस्य / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

रहस्य / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

उर्ध्व देश उस नील तमस में, स्तब्ध हि रही अचल हिमानी, पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक, देख रहा वह गिरि अभिमानी, दोनों पथिक चले हैं कब से, ऊँचे-ऊँचे चढते जाते, श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साही से बढते। पवन वेग प्रतिकूल उधर था, कहता-‘फिर जा अरे बटोही किधर चला तू मुझे भेद कर प्राणों… Continue reading रहस्य / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

दर्शन / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन, वरदान बने मेरा जीवन जो मुझको तू यों चली छोड, तो मुझे मिले फिर यही क्रोड” “हे सौम्य इडा का शुचि दुलार, हर लेगा तेरा व्यथा-भार, यह तर्कमयी तू श्रद्धामय, तू मननशील कर कर्म अभय, इसका तू सब संताप निचय, हर ले, हो मानव भाग्य उदय, सब की… Continue reading दर्शन / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

दर्शन / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

वह चंद्रहीन थी एक रात, जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ उजले-उजले तारक झलमल, प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल, धारा बह जाती बिंब अटल, खुलता था धीरे पवन-पटल चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत सुनती जैसे कुछ निजी बात। धूमिल छायायें रहीं घूम, लहरी पैरों को रही चूम, “माँ तू चल आयी दूर इधर, सन्ध्या कब की चल… Continue reading दर्शन / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

निर्वेद / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

उधर प्रभात हुआ प्राची में मनु के मुद्रित-नयन खुले। श्रद्धा का अवलंब मिला फिर कृतज्ञता से हृदय भरे, मनु उठ बैठे गदगद होकर बोले कुछ अनुराग भरे। “श्रद्धा तू आ गयी भला तो- पर क्या था मैं यहीं पडा’ वही भवन, वे स्तंभ, वेदिका बिखरी चारों ओर घृणा। आँखें बंद कर लिया क्षोभ से “दूर-दूर… Continue reading निर्वेद / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

निर्वेद / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध, मलिन, कुछ मौन बना, जिसके ऊपर विगत कर्म का विष-विषाद-आवरण तना। उल्का धारी प्रहरी से ग्रह- तारा नभ में टहल रहे, वसुधा पर यह होता क्या है अणु-अणु क्यों है मचल रहे? जीवन में जागरण सत्य है या सुषुप्ति ही सीमा है, आती है रह रह पुकार-सी ‘यह भव-रजनी… Continue reading निर्वेद / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

संघर्ष / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

आह न समझोगे क्या मेरी अच्छी बातें, तुम उत्तेजित होकर अपना प्राप्य न पाते। प्रजा क्षुब्ध हो शरण माँगती उधर खडी है, प्रकृति सतत आतंक विकंपित घडी-घडी है। साचधान, में शुभाकांक्षिणी और कहूँ क्या कहना था कह चुकी और अब यहाँ रहूँ क्या” “मायाविनि, बस पाली तमने ऐसे छुट्टी, लडके जैसे खेलों में कर लेते… Continue reading संघर्ष / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद