किरण / जयशंकर प्रसाद

किरण! तुम क्यों बिखरी हो आज, रँगी हो तुम किसके अनुराग, स्वर्ण सरजित किंजल्क समान, उड़ाती हो परमाणु पराग। धरा पर झुकी प्रार्थना सदृश, मधुर मुरली-सी फिर भी मौन, किसी अज्ञात विश्व की विकल- वेदना-दूती सी तूम कौन? अरुण शिशु के मुख पर सविलास, सुनहली लट घुँघराली कान्त, नाचती हो जैसे तुम कौन? उषा के… Continue reading किरण / जयशंकर प्रसाद

पावस-प्रभात / जयशंकर प्रसाद

नव तमाल श्यामल नीरद माला भली श्रावण की राका रजनी में घिर चुकी, अब उसके कुछ बचे अंश आकाश में भूले भटके पथिक सदृश हैं घूमते। अर्ध रात्री में खिली हुई थी मालती, उस पर से जो विछल पड़ा था, वह चपल मलयानिल भी अस्त व्यस्त हैं घूमता उसे स्थान ही कहीं ठहरने को नहीं।… Continue reading पावस-प्रभात / जयशंकर प्रसाद

अव्यवस्थित / जयशंकर प्रसाद

विश्व के नीरव निर्जन में। जब करता हूँ बेकल, चंचल, मानस को कुछ शान्त, होती है कुछ ऐसी हलचल, हो जाता हैं भ्रान्त, भटकता हैं भ्रम के बन में, विश्व के कुसुमित कानन में। जब लेता हूँ आभारी हो, बल्लरियों से दान कलियों की माला बन जाती, अलियों का हो गान, विकलता बढ़ती हिमकन में,… Continue reading अव्यवस्थित / जयशंकर प्रसाद

झरना (कविता) / जयशंकर प्रसाद

मधुर हैं स्रोत मधुर हैं लहरी न हैं उत्पात, छटा हैं छहरी मनोहर झरना। कठिन गिरि कहाँ विदारित करना बात कुछ छिपी हुई हैं गहरी मधुर हैं स्रोत मधुर हैं लहरी कल्पनातीत काल की घटना हृदय को लगी अचानक रटना देखकर झरना। प्रथम वर्षा से इसका भरना स्मरण हो रहा शैल का कटना कल्पनातीत काल… Continue reading झरना (कविता) / जयशंकर प्रसाद

परिचय / झरना / जयशंकर प्रसाद

उषा का प्राची में अभ्यास, सरोरुह का सर बीच विकास॥ कौन परिचय? था क्या सम्बन्ध? गगन मंडल में अरुण विलास॥ रहे रजनी मे कहाँ मिलिन्द? सरोवर बीच खिला अरविन्द। कौन परिचय? था क्या सम्बन्ध? मधुर मधुमय मोहन मकरन्द॥ प्रफुल्लित मानस बीच सरोज, मलय से अनिल चला कर खोज। कौन परिचय? था क्या सम्बन्ध? वही परिमल… Continue reading परिचय / झरना / जयशंकर प्रसाद

आँसू / जयशंकर प्रसाद / पृष्ठ ६

आशा का फैल रहा है यह सूना नीला अंचल फिर स्वर्ण-सृष्टि-सी नाचे उसमें करुणा हो चंचल मधु संसृत्ति की पुलकावलि जागो, अपने यौवन में फिर से मरन्द हो कोमल कुसुमों के वन में। फिर विश्व माँगता होवे ले नभ की खाली प्याली तुमसे कुछ मधु की बूँदे लौटा लेने को लाली। फिर तम प्रकाश झगड़े… Continue reading आँसू / जयशंकर प्रसाद / पृष्ठ ६

आँसू / जयशंकर प्रसाद / पृष्ठ ५

सपनों की सोनजुही सब बिखरें, ये बनकर तारा सित सरसित से भर जावे वह स्वर्ग गंगा की धारा नीलिमा शयन पर बैठी अपने नभ के आँगन में विस्मृति की नील नलिन रस बरसो अपांग के घन से। चिर दग्ध दुखी यह वसुधा आलोक माँगती तब भी तम तुहिन बरस दो कन-कन यह पगली सोये अब… Continue reading आँसू / जयशंकर प्रसाद / पृष्ठ ५

आँसू / जयशंकर प्रसाद / पृष्ठ ४

यह पारावार तरल हो फेनिल हो गरल उगलता मथ डाला किस तृष्णा से तल में बड़वानल जलता। निश्वास मलय में मिलकर छाया पथ छू आयेगा अन्तिम किरणें बिखराकर हिमकर भी छिप जायेगा। चमकूँगा धूल कणों में सौरभ हो उड़ जाऊँगा पाऊँगा कहीं तुम्हें तो ग्रहपथ मे टकराऊँगा। इस यान्त्रिक जीवन में क्या ऐसी थी कोई… Continue reading आँसू / जयशंकर प्रसाद / पृष्ठ ४

आँसू / जयशंकर प्रसाद / पृष्ठ ३

हीरे-सा हृदय हमारा कुचला शिरीष कोमल ने हिमशीतल प्रणय अनल बन अब लगा विरह से जलने। अलियों से आँख बचा कर जब कुंज संकुचित होते धुँधली संध्या प्रत्याशा हम एक-एक को रोते। जल उठा स्नेह, दीपक-सा, नवनीत हृदय था मेरा अब शेष धूमरेखा से चित्रित कर रहा अँधेरा। नीरव मुरली, कलरव चुप अलिकुल थे बन्द… Continue reading आँसू / जयशंकर प्रसाद / पृष्ठ ३

आँसू / जयशंकर प्रसाद / पृष्ठ २

प्रतिमा में सजीवता-सी बस गयी सुछवि आँखों में थी एक लकीर हृदय में जो अलग रही लाखों में। माना कि रूप सीमा हैं सुन्दर! तव चिर यौवन में पर समा गये थे, मेरे मन के निस्सीम गगन में। लावण्य शैल राई-सा जिस पर वारी बलिहारी उस कमनीयता कला की सुषमा थी प्यारी-प्यारी। बाँधा था विधु… Continue reading आँसू / जयशंकर प्रसाद / पृष्ठ २