नदी की विस्तृत वेला शान्त, अरुण मंडल का स्वर्ण विलास; निशा का नीरव चन्द्र-विनोद, कुसुम का हँसते हुए विकास। एक से एक मनोहर दृश्य, प्रकृति की क्रीड़ा के सब छंद; सृष्टि में सब कुछ हैं अभिराम, सभी में हैं उन्नति या ह्रास। बना लो अपना हृदय प्रशान्त, तनिक तब देखो वह सौन्दर्य; चन्द्रिका से उज्जवल… Continue reading हृदय का सौंदर्य / जयशंकर प्रसाद
Category: Jaishankar Prasad
दर्शन / जयशंकर प्रसाद
जीवन-नाव अँधेरे अन्धड़ मे चली। अद्भूत परिवर्तन यह कैसा हो चला। निर्मल जल पर सुधा भरी है चन्द्रिका, बिछल पड़ी, मेरी छोटी-सी नाव भी। वंशी की स्वर लहरी नीरव व्योम में- गूँज रही हैं, परिमल पूरित पवन भी- खेल रहा हैं जल लहरी के संग में। प्रकृति भरा प्याला दिखलाकर व्योम में- बहकाती हैं, और… Continue reading दर्शन / जयशंकर प्रसाद
प्रत्याशा / जयशंकर प्रसाद
मन्द पवन बह रहा अँधेरी रात हैं। आज अकेले निर्जन गृह में क्लान्त हो- स्थित हूँ, प्रत्याशा में मैं तो प्राणहीन। शिथिल विपंची मिली विरह संगीत से बजने लगी उदास पहाड़ी रागिनी। कहते हो-\”उत्कंठा तेरी कपट हैं।\” नहीं नहीं उस धुँधले तारे को अभी- आधी खुली हुई खिड़की की राह से जीवन-धन! मैं देख रहा… Continue reading प्रत्याशा / जयशंकर प्रसाद
असंतोष / जयशंकर प्रसाद
हरित वन कुसुमित हैं द्रुम-वृन्द; बरसता हैं मलयज मकरन्द। स्नेह मय सुधा दीप हैं चन्द, खेलता शिशु होकर आनन्द। क्षुद्र ग्रह किन्तु सुख मूल; उसी में मानव जाता भूल। नील नभ में शोभन विस्तार, प्रकृति हैं सुन्दर, परम उदार। नर हृदय, परिमित, पूरित स्वार्थस बात जँजती कुछ नहीं यथार्थ। जहाँ सुख मिला न उसमें तृप्ति,… Continue reading असंतोष / जयशंकर प्रसाद
स्वभाव / जयशंकर प्रसाद
दूर हटे रहते थे हम तो आप ही क्यों परिचित हो गये ? न थे जब चाहते- हम मिलना तुमसे। न हृदय में वेग था स्वयं दिखा कर सुन्दर हृदय मिला दिया दूध और पानी-सी; अब फिर क्या हुआ- देकर जो कि खटाई फाड़ा चाहते? भरा हुआ था नवल मेघ जल-बिन्दु से, ऐसा पवन चलाया,… Continue reading स्वभाव / जयशंकर प्रसाद
कब? / जयशंकर प्रसाद
शून्य हृदय में प्रेम-जलद-माला कब फिर घिर आवेगी? वर्षा इन आँखों से होगी, कब हरियाली छावेगी? रिक्त हो रही मधु से सौरभ सूख रहा है आतप हैं; सुमन कली खिलकर कब अपनी पंखुड़ियाँ बिखरावेगी? लम्बी विश्व कथा में सुख की निद्रा-सी इन आँखों में- सरस मधुर छवि शान्त तुम्हारी कब आकर बस जावेगी? मन-मयूर कब… Continue reading कब? / जयशंकर प्रसाद
दीप / जयशंकर प्रसाद
धूसर सन्ध्या चली आ रही थी अधिकार जमाने को, अन्धकार अवसाद कालिमा लिये रहा बरसाने को। गिरि संकट के जीवन-सोता मन मारे चुप बहता था, कल कल नाद नही था उसमें मन की बात न कहता था। इसे जाह्नवी-सी आदर दे किसने भेंट चढाया हैं, अंचल से सस्नेह बचाकर छोटा दीप जलाया हैं। जला करेगा… Continue reading दीप / जयशंकर प्रसाद
चिह्न / जयशंकर प्रसाद
इन अनन्त पथ के कितने ही, छोड़ छोड़ विश्राम-स्थान, आये थे हम विकल देखने, नव वसन्त का सुन्दर मान। मानवता के निर्जन बन मे जड़ थी प्रकृति शान्त था व्योम, तपती थी मध्याह्न-किरण-सी प्राणों की गति लोम विलोम। आशा थी परिहास कर रही स्मृति का होता था उपहास, दूर क्षितिज मे जाकर सोता था जीवन… Continue reading चिह्न / जयशंकर प्रसाद
बालू की बेला / जयशंकर प्रसाद
आँख बचाकर न किरकिरा कर दो इस जीवन का मेला। कहाँ मिलोगे? किसी विजन में? – न हो भीड़ का जब रेला॥ दूर! कहाँ तक दूर? थका भरपूर चूर सब अंग हुआ। दुर्गम पथ मे विरथ दौड़कर खेल न था मैने खेला। कुछ कहते हो \’कुछ दुःख नही\’, हाँ ठीक, हँसी से पूछो तुम। प्रश्न… Continue reading बालू की बेला / जयशंकर प्रसाद
विषाद / जयशंकर प्रसाद
कौन, प्रकृति के करुण काव्य-सा, वृक्ष-पत्र की मधु छाया में। लिखा हुआ-सा अचल पड़ा हैं, अमृत सदृश नश्वर काया में। अखिल विश्व के कोलाहल से, दूर सुदूर निभृत निर्जन में। गोधूली के मलिनांचल में, कौन जंगली बैठा बन में। शिथिल पड़ी प्रत्यंचा किसकीस धनुष भग्न सब छिन्न जाल हैं। वंशी नीरव पड़ी धूल में, वीणा… Continue reading विषाद / जयशंकर प्रसाद