करूण क्रन्दन / जयशंकर प्रसाद

करूणा-निधे, यह करूण क्रन्दन भी ज़रा सुन लीजिये कुछ भी दया हो चित्त में तो नाथ रक्षा कीजिये हम मानते, हम हैं अधम, दुष्कर्म के भी छात्र हैं हम है तुम्हारे, इसलिये फिर भी दया के पात्र हैं सुख में न तुमको याद करता, है मनुज की गति यही पर नाथ, पड़कर दुःख में किसने… Continue reading करूण क्रन्दन / जयशंकर प्रसाद

मन्दिर / जयशंकर प्रसाद

जब मानते हैं व्यापी जलभूमि में अनिल में तारा-शशांक में भी आकाश मे अनल में फिर क्यो ये हठ है प्यारे ! मन्दिर में वह नहीं है वह शब्द जो ‘नही’ है, उसके लिए नहीं है जिस भूमि पर हज़ारों हैं सीस को नवाते परिपूर्ण भक्ति से वे उसको वहीं बताते कहकर सइस्त्र मुख से… Continue reading मन्दिर / जयशंकर प्रसाद

नमस्कार / जयशंकर प्रसाद

जिस मंदिर का द्वार सदा उन्मुक्त रहा है जिस मंदिर में रंक-नरेश समान रहा है जिसके हैं आराम प्रकृति-कानन ही सारे जिस मंदिर के दीप इन्दु, दिनकर औ’ तारे उस मंदिर के नाथ को, निरूपम निरमय स्वस्थ को नमस्कार मेरा सदा पूरे विश्‍व-गृहस्थ को

वन्दना / जयशंकर प्रसाद

जयति प्रेम-निधि ! जिसकी करूणा नौका पार लगाती है जयति महासंगीत ! विश्‍व-वीणा जिसकी ध्वनि गाती है कादम्‍िबनी कृपा की जिसकी सुधा-नीर बरसाती है भव-कानन की धरा हरित हो जिससे शोभा पाती है निर्विकार लीलामय ! तेरी शक्ति न जानी जाती है ओतप्रोत हो तो भी सबकी वाणी गुण-गुना गाती है गदगद्-हृदय-निःसृता यह भी वाणी… Continue reading वन्दना / जयशंकर प्रसाद

प्रभो / जयशंकर प्रसाद

विमल इन्दु की विशाल किरणें प्रकाश तेरा बता रही हैं अनादि तेरी अन्नत माया जगत् को लीला दिखा रही हैं प्रसार तेरी दया का कितना ये देखना हो तो देखे सागर तेरी प्रशंसा का राग प्यारे तरंगमालाएँ गा रही हैं तुम्हारा स्मित हो जिसे निरखना वो देख सकता है चंद्रिका को तुम्हारे हँसने की धुन… Continue reading प्रभो / जयशंकर प्रसाद

अतिथि / जयशंकर प्रसाद

दूर हटे रहते थे हम तो आप ही क्यों परिचित हो गये ? न थे जब चाहते- हम मिलना तुमसे। न हृदय में वेग था स्वयं दिखा कर सुन्दर हृदय मिला दिया दूध और पानी-सी; अब फिर क्या हुआ- देकर जो कि खटाई फाड़ा चाहते? भरा हुआ था नवल मेघ जल-बिन्दु से, ऐसा पवन चलाया,… Continue reading अतिथि / जयशंकर प्रसाद

कसौटी / जयशंकर प्रसाद

तिरस्कार कालिमा कलित हैं, अविश्वास-सी पिच्छल हैं। कौन कसौटी पर ठहरेगा? किसमें प्रचुर मनोबल है? तपा चुके हो विरह वह्नि में, काम जँचाने का न इसे। शुद्ध सुवर्ण हृदय है प्रियतम! तुमको शंका केवल है॥ बिका हुआ है जीवन धन यह कब का तेरे हाथो मे। बिना मूल्य का , हैं अमूल्य यह ले लो… Continue reading कसौटी / जयशंकर प्रसाद

कुछ नहीं / जयशंकर प्रसाद

हँसी आती हैं मुझको तभी, जब कि यह कहता कोई कहीं- अरे सच, वह तो हैं कंगाल, अमुक धन उसके पास नहीं। सकल निधियों का वह आधार, प्रमाता अखिल विश्व का सत्य, लिये सब उसके बैठा पास, उसे आवश्यकता ही नही। और तुम लेकर फेंकी वस्तु, गर्व करते हो मन में तुच्छ, कभी जब ले… Continue reading कुछ नहीं / जयशंकर प्रसाद

रत्न / जयशंकर प्रसाद

मिल गया था पथ में वह रत्न। किन्तु मैने फिर किया न यत्न॥ पहल न उसमे था बना, चढ़ा न रहा खराद। स्वाभाविकता मे छिपा, न था कलंक विषाद॥ चमक थी, न थी तड़प की झोंक। रहा केवल मधु स्निग्धालोक॥ मूल्य था मुझे नही मालूम। किन्तु मन लेता उसको चूम॥ उसे दिखाने के लिए, उठता… Continue reading रत्न / जयशंकर प्रसाद

होली की रात / जयशंकर प्रसाद

बरसते हो तारों के फूल छिपे तुम नील पटी में कौन? उड़ रही है सौरभ की धूल कोकिला कैसे रहती मीन। चाँदनी धुली हुई हैं आज बिछलते है तितली के पंख। सम्हलकर, मिलकर बजते साज मधुर उठती हैं तान असंख। तरल हीरक लहराता शान्त सरल आशा-सा पूरित ताल। सिताबी छिड़क रहा विधु कान्त बिछा हैं… Continue reading होली की रात / जयशंकर प्रसाद