हे जननि, तुम तपश्चरिता / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

हे जननि, तुम तपश्चरिता,
जगत की गति, सुमति भरिता।

कामना के हाथ थक कर
रह गये मुख विमुख बक कर,
निःस्व के उर विश्व के सुर
बह चली हो तमस्तरिता।

विवश होकर मिले शंकर,
कर तुम्हारे हैं विजय वर,
चरण पर मस्तक झुकाकर,
शरण हूँ, तुम मरण सरिता।

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