हार तुमसे बनी है जय, / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

हार तुमसे बनी है जय,
जीत की जो चक्षु में क्षय।

विषम कम्पन बली के उर,
सदुन्मोचन छली के पुर,
कामिनी के अकल नूपुर,
भामिनी के हृदय में भय।

रच गये जो अधर अनरुण,
बच गये जो विरह-सकरुण,
अनसुने जो सच गये सुन,
जो न पाया, मिला आशय।

क्षणिकता चिर-धनिक की है,
पणिकता जग-वणिक की है,
राशि जैसे कणिक की है,
वाम जैसे है निरामय।

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