स्वप्न-स्मृति / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

आँख लगी थी पल-भर,
देखा, नेत्र छलछलाए दो
आए आगे किसी अजाने दूर देश से चलकर।
मौन भाषा थी उनकी, किन्तु व्यक्त था भाव,
एक अव्यक्त प्रभाव
छोड़ते थे करुणा का अन्तस्थल में क्षीण,
सुकुमार लता के वाताहत मृदु छिन्न पुष्प से दीन।

भीतर नग्न रूप था घोर दमन का,
बाहर अचल धैर्य था उनके उस दुखमय जीवन का;
भीतर ज्वाला धधक रही थी सिन्धु अनल की,
बाहर थीं दो बूँदें- पर थीं शांत भाव में निश्चल-
विकल जलधि के जर्जर मर्मस्थल की।

भाव में कहते थे वे नेत्र निमेष-विहीन-
अन्तिम श्वास छोड़ते जैसे थोड़े जल में मीन,
“हम अब न रहेंगे यहाँ, आह संसार!
मृगतृष्णा से व्यर्थ भटकना, केवल हाहाकार
तुम्हारा एकमात्र आधार;
हमें दु:ख से मुक्ति मिलेगी- हम इतने दुर्बल हैं-
तुम कर दो एक प्रहार!”

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