साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / तृतीय सर्ग / पृष्ठ ५

कहा सौमित्रि ने–“हे तात सुनिये,
उचित-अनुचित हृदय में आप गुनिए।
कि मँझली माँ हमें वन भेजती हैं।
भरत के अर्थ राज्य सहेजती हैं।”
निरख कर सामने ज्यों साँप भारी,
सहम जावे अचानक मार्गचारी।
सचिववर रह गये त्यों भ्रान्त होकर,
रुका निश्वास भी क्या श्रान्त होकर!
सँभल कर अन्त में इस भाँति बोले-
कि “आये खेत पर ही दैव, ओले!
कहाँ से यह कुमति की वायु आई,
किनारे नाव जिससे डगमगाई!
भरत दशरथ पिता के पुत्र होकर–
न लेंगे, फेर देंगे राज्य रोकर।
बिना समझे भरत का भाव सारा,
विपिन का व्यर्थ है प्रस्ताव सारा।
न जानें दैव को स्वीकार क्या है?
रहो, देखूँ कि यह व्यापार क्या है?
न रोकूँगा तुम्हें मैं धर्म-पथ से,
तदपि इति तक समझलूँ मर्म अथ से।”
उत्तर की अनपेक्षा करके आँसू रोक सुमन्त्र,
चले भूप की ओर वेग से, घूमा अन्तर्यन्त्र।
चले फिर रघुवर माँ से मिलने,
बढ़ाया घन सा प्राणानिल ने।
चले पीछे लक्ष्मण भी ऐसे–
भाद्र के पीछे आश्विन जैसे।

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