साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ १

करुणा-कंजारण्य रवे!
गुण-रत्नाकर, आदि-कवे!
कविता-पितः! कृपा वर दो,
भाव राशि मुझ में भर दो।
चढ़ कर मंजु मनोरथ में,
आकर रम्य राज-पथ में,
दर्शन करूँ तपोवन का,
इष्ट यही है इस जन का।
सुख से सद्यः स्नान किये,
पीताम्बर परिधान किये,
पवित्रता में पगी हुई,
देवार्चन में लगी हुई,
मूर्तिमयी ममता-माया,
कौशल्या कोमल-काया,
थीं अतिशय आनन्दयुता,
पास खड़ीं थीं जनकसुता।
गोट जड़ाऊ घूँघट की–
बिजली जलदोपम पट की,
परिधि बनी थी विधु-मुख की,
सीमा थी सुषमा-सुख की।
भाव-सुरभि का सदन अहा!
अमल कमल-सा वदन अहा!
अधर छबीले छदन अहा!
कुन्द-कली-से रदन अहा!
साँप खिलातीं थीं अलकें,
मधुप पालती थीं पलकें,
और कपोलों की झलकें,
उठती थीं छवि की छलकें!
गोल गोल गोरी बाहें–
दो आँखों की दो राहें।
भाग-सुहाग पक्ष में थे,
अंचलबद्ध कक्ष में थे!
थीं कमला सी कल्याणी,
वाणी में वीणापाणी।
’माँ! क्या लाऊँ?’ कह कह कर–
पूछ रही थीं रह रह कर।
सास चाहती थीं जब जो,–
देती थीं उनको सब सो।
कभी आरती, धूप कभी,
सजती थीं सामान सभी।
देख देख उनकी ममता,
करती थीं उसकी समता।
आज अतुल उत्साह-भरे,
थे दोनों के हृदय हरे।
दोनों शोभित थीं ऐसी–
मेना और उमा जैसी।
मानों वह भू-लोक न था,
वहाँ दुःख या शोक न था।
प्राणपद था पवन वहाँ,
ऐसा पुण्यस्थान कहाँ?
अमृत-तीर्थ का तट-सा था,
अन्तर्जगत् प्रकट-सा था!

इसी समय प्रभु अनुज-सहित-
पहुँचे वहाँ विकार-रहित।
जब तक जाय प्रणाम किया–
माँ ने आशीर्वाद दिया।
हँस सीता कुछ सकुचाईं,
आँखें तिरछीं हो आईं।
लज्जा ने घूँघट काढ़ा–
मुख का रंग किया गाढ़ा।
“बहू! तनिक अक्षत-रोली,
तिलक लगा दूँ” माँ बोली–।
“जियो, जियो, बेटा! आओ,
पूजा का प्रसाद पाओ।”

लक्ष्मण ने सोचा मन में,–
“जानें देंगी ये वन में?
प्रभु इनको भी छोड़ेंगे–
तो किस धन को जोड़ेंगे?
मँझली माँ! तू मरी न क्यों?
लोक-लाज से डरी न क्यों?”
लक्ष्मन ने निःश्वास लिया,
माँ के जान-सुवास लिया!

बोले तब श्रीराघव यों–
धर्मधीर नवघन-रव ज्यों–
“माँ! मैं आज कृतार्थ हुआ,
स्वार्थ स्वयं परमार्थ हुआ।
पावनकारक जीवन का,
मुझको वास मिला वन का।
जाता हूँ मैं अभी वहाँ,
राज्य करेंगे भरत यहाँ।”
माँ को प्रत्यय भी न हुआ,
इसी लिए भय भी न हुआ!
समझी सीता किन्तु सभी,
झूठ कहेंगे प्रभु न कभी।
खिंची हृदय पर भय-रेखा,
पर माँ ने न उधर देखा।
बोली वे हँस कर–“रह तू–
यह न हँसी में भी कह तू।
तेरा स्वत्व भरत लेगा?
वन में तुझे भेज देगा?
वही भरत जो भ्राता है,
क्या तू मुझे डराता है?
लक्ष्मण! यह दादा तेरा,–
धैर्य देखता है मेरा!
ऐं! लक्ष्मण तो रोता है!
ईश्वर यह क्या होता है!”

उनका हृदय सशंक हुआ,
उदित अशुभ आतंक हुआ।
“सच हैं तब क्या वे बातें?
दैव! दैव! ऐसी घातें!”
काँप उठीं वे मृदुदेही,
धरती घूमी या वे ही।
बैठीं फिर गिर कर मानों,
जकड़ गईं घिर कर मानों,
आँखें भरीं, विश्व रीता,
उलट गया सब मनचीता!
सीता से थामीं जाकर–
रहीं देखतीं टक लाकर।

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