सरोज स्मृति / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” / पृष्ठ ३

<< पिछला पृष्ठ पर संपादकगण निरानंद वापस कर देते पढ़ सत्त्वर दे एक-पंक्ति-दो में उत्तर। लौटी लेकर रचना उदास ताकता हुआ मैं दिशाकाश बैठा प्रान्तर में दीर्घ प्रहर व्यतीत करता था गुन-गुन कर सम्पादक के गुण; यथाभ्यास पास की नोंचता हुआ घास अज्ञात फेंकता इधर-उधर भाव की चढी़ पूजा उन पर। याद है दिवस की प्रथम धूप थी पडी़ हुई तुझ पर सुरूप, खेलती हुई तू परी चपल, मैं दूरस्थित प्रवास में चल दो वर्ष बाद हो कर उत्सुक देखने के लिये अपने मुख था गया हुआ, बैठा बाहर आँगन में फाटक के भीतर, मोढे़ पर, ले कुंडली हाथ अपने जीवन की दीर्घ-गाथ। पढ़ लिखे हुए शुभ दो विवाह। हँसता था, मन में बडी़ चाह खंडित करने को भाग्य-अंक, देखा भविष्य के प्रति अशंक। इससे पहिले आत्मीय स्वजन सस्नेह कह चुके थे जीवन सुखमय होगा, विवाह कर लो जो पढी़ लिखी हो -- सुन्दर हो। आये ऐसे अनेक परिणय, पर विदा किया मैंने सविनय सबको, जो अडे़ प्रार्थना भर नयनों में, पाने को उत्तर अनुकूल, उन्हें जब कहा निडर -- "मैं हूँ मंगली," मुडे़ सुनकर इस बार एक आया विवाह जो किसी तरह भी हतोत्साह होने को न था, पडी़ अड़चन, आया मन में भर आकर्षण उस नयनों का, सासु ने कहा -- "वे बडे़ भले जन हैं भैय्या, एन्ट्रेंस पास है लड़की वह, बोले मुझसे -- 'छब्बीस ही तो वर की है उम्र, ठीक ही है, लड़की भी अट्ठारह की है।' फिर हाथ जोडने लगे कहा -- ' वे नहीं कर रहे ब्याह, अहा, हैं सुधरे हुए बडे़ सज्जन। अच्छे कवि, अच्छे विद्वज्जन। हैं बडे़ नाम उनके। शिक्षित लड़की भी रूपवती; समुचित आपको यही होगा कि कहें हर तरह उन्हें; वर सुखी रहें।' >> अगला पृष्ठ

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