सन्तप्त / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

अपने अतीत का ध्यान
करता मैं गाता था गाने भूले अम्रीयमाण।

एकाएक क्षोभ का अन्तर में होते संचार
उठी व्यथित उँगली से कातर एक तीव्र झंकार,
विकल वीणा के टूटे तार!

मेरा आकुअ क्रंदन,
व्याकुल वह स्वर-सरित-हिलोर
वायु में भरती करुण मरोर
बढ़ती है तेरी ओर।

मेरे ही क्रन्दन से उमड़ रहा यह तेरा सागर
सदा अधीर,

मेरे ही बन्धन से निश्चल-
नन्दन-कुसुम-सुरभि-मधु-मदिर समीर;

मेरे गीतों का छाया अवसाद,
देखा जहाँ, वहीं है करुणा,
घोर विषाद।

ओ मेरे!–मेरे बन्धन-उन्मोचन!
ओ मेरे!–ओ मेरे क्रन्दन-वन्दन!
ओ मेरे अभिनन्दन!

ये सन्तप्त लिप्त कब होंगे गीत,
हृत्तल में तव जैसे शीतल चन्दन?

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *