व्यंग्य यह निष्ठुर समय का / गोपालदास “नीरज”

व्यंग्य यह निष्ठुर समय का।

आँसुओं के स्नेह से जिसको जलाकर
प्राण-अंचल-छाँह में जिसको छिपाकर
चीखती निशि की गहन बीहड़ डगर को
पार कर पाता पथिक जिसको दया पर
पर बुझा देता वही दीपक बटोही
जब समय आता निकट दिन के उदय का।

व्यंग्य यह निष्ठुर समय का।

राह में जिसको बिछा कुसुमित पलक-दल
भार-तल पर आँक जिसके चरण-चंचल
सुरभि की सरभित सुरासरि से जिसे छू
हर लिया था ताप जिसकी देह का कल
आज फ़ूलों की उसी मृदु चाँदनी को
नोंचता बन काल वह झोंका मलय का।

व्यंग्य यह निष्ठुर समय का।

देखकर जिसका अबाधित वेग हर-हर
राह दे देते सहम कर शैल-भूधर
तृण सदृश बहते सघन बन साथ जिसके
घाटियाँ जिसमें पिघल जातीं मचलकर
बूंद सा लेकिन वही गतिवान निर्झर
खोजता आश्रय उदधि में अन्त लय का।

व्यंग्य यह निष्ठुर समय का।

कह रहे किस भाँति फ़िर तुम सत्य जीवन
लक्ष्य उसका एक जब बस नाश का क्षण
सत्य तो वह है समय हो दास जिसका
नाश जिसके सामने कर दे समर्पण
काल पर अंकित ना जीवन-चिन्ह कोई
किन्तु जीवन पर अमिट है लेख वय का।

व्यंग्य यह निष्ठुर समय का।

कुछ नहीं जीवन, अरे बस देह का ऋण
जो चुकाना ही हमें पड़ता किसी क्षण
कर रहा व्यापार पर इस ब्याज से जो
वह समय ही, काल ही शाश्वत-चिरन्तन
फ़ूल का है मूल्य, उपवन में ना कोई
सत्य मधु ऋतु ही सदा सिरजन-प्रलय का।

व्यंग्य यह निष्ठुर समय का।

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