मैं वह धनु हूँ / अज्ञेय

मैं वह धनु हूँ, जिसे साधने
में प्रत्यंचा टूट गई है।
स्खलित हुआ है बाण, यदपि ध्वनि
दिग्दिगन्त में फूट गई है–
प्रलय-स्वर है वह, या है बस
मेरी लज्जाजनक पराजय,
या कि सफलता ! कौन कहेगा
क्या उस में है विधि का आशय !
क्या मेरे कर्मों का संचय
मुझ को चिन्ता छूट गई है–
मैं बस जानूँ, मैं धनु हूँ, जिस
की प्रत्यंचा टूट गई है!

लाहौर, 15 जून, 1935

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