मैं तुम्हें अपना / गोपालदास “नीरज”

अजनबी यह देश, अनजानी यहां की हर डगर है,

बात मेरी क्या- यहां हर एक खुद से बेखबर है

किस तरह मुझको बना ले सेज का सिंदूर कोई

जबकि मुझको ही नहीं पहचानती मेरी नजर है,

आंख में इसे बसाकर मोहिनी मूरत तुम्हारी

मैं सदा को ही स्वयं को भूल जाना चाहता हूं

मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

दीप को अपना बनाने को पतंगा जल रहा है,

बूंद बनने को समुन्दर का हिमालय गल रहा है,

प्यार पाने को धरा का मेघ है व्याकुल गगन में,

चूमने को मृत्यु निशि-दिन श्वास-पंथी चल रहा है,

है न कोई भी अकेला राह पर गतिमय इसी से

मैं तुम्हारी आग में तन मन जलाना चाहता हूं।

मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

देखता हूं एक मौन अभाव सा संसार भर में,

सब विसुध, पर रिक्त प्याला एक है, हर एक कर में,

भोर की मुस्कान के पीछे छिपी निशि की सिसकियां,

फूल है हंसकर छिपाए शूल को अपने जिगर में,

इसलिए ही मैं तुम्हारी आंख के दो बूंद जल में

यह अधूरी जिन्दगी अपनी डुबाना चाहता हूं।

मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

वे गए विष दे मुझे मैंने हृदय जिनको दिया था,

शत्रु हैं वे प्यार खुद से भी अधिक जिनको किया था,

हंस रहे वे याद में जिनकी हजारों गीत रोये,

वे अपरिचित हैं, जिन्हें हर सांस ने अपना लिया था,

इसलिए तुमको बनाकर आंसुओं की मुस्कराहट,

मैं समय की क्रूर गति पर मुस्कराना चाहता हूं।

मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

दूर जब तुम थे, स्वयं से दूर मैं तब जा रहा था,

पास तुम आए जमाना पास मेरे आ रहा था

तुम न थे तो कर सकी थी प्यार मिट्टी भी न मुझको,

सृष्टि का हर एक कण मुझ में कमी कुछ पा रहा था,

पर तुम्हें पाकर, न अब कुछ शेष है पाना इसी से

मैं तुम्हीं से, बस तुम्हीं से लौ लगाना चाहता हूं।

मैं तुम्हें, केवल तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

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