मैं अकेला / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

मैं अकेला;
देखता हूँ, आ रही
मेरे दिवस की सान्ध्य बेला ।

पके आधे बाल मेरे
हुए निष्प्रभ गाल मेरे,
चाल मेरी मन्द होती आ रही,
हट रहा मेला ।

जानता हूँ, नदी-झरने
जो मुझे थे पार करने,
कर चुका हूँ, हँस रहा यह देख,
कोई नहीं भेला ।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *