भजन कर हरि के चरण, मन! / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

भजन कर हरि के चरण, मन!
पार कर मायावरण, मन!

कलुष के कर से गिरे हैं
देह-क्रम तेरे फिरे हैं,
विपथ के रथ से उतरकर
बन शरण का उपकरण, मन!

अन्यथा है वन्य कारा,
प्रबल पावस, मध्य धारा,
टूटते तन से पछड़कर
उखड़ जायेगा तरण, मन!

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