प्रकाश / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

रोक रहे हो जिन्हें
नहीं अनुराग-मूर्ति वे
किसी कृष्ण के उर की गीता अनुपम?
और लगाना गले उन्हें–
जो धूलि-धूसरित खड़े हुए हैं–
कब से प्रियतम, है भ्रम?
हुई दुई में अगर कहीं पहचान
तो रस भी क्या–
अपने ही हित का गया न जब अनुमान?
है चेतन का आभास
जिसे, देखा भी उसने कभी किसी को दास?
नहीं चाहिए ज्ञान
जिसे, वह समझा कभी प्रकाश?

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