जय तुम्हारी देख भी ली / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

जय तुम्हारी देख भी ली
रूप की गुण की, रसीली ।

वृद्ध हूँ मैं, वृद्ध की क्या,
साधना की, सिद्धी की क्या,
खिल चुका है फूल मेरा,
पंखड़ियाँ हो चलीं ढीली ।

चढ़ी थी जो आँख मेरी,
बज रही थी जहाँ भेरी,

वहाँ सिकुड़न पड़ चुकी है ।
जीर्ण है वह आज तीली ।

आग सारी फुक चुकी है,
रागिनी वह रुक चुकी है,
स्मरण में आज जीवन,
मृत्यु की है रेख नीली ।

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