मंजरित इस आम्र-तरु की छाँह में बैठो पथिक! तुम,
मैं समीरण से कहूँ, वह अतिथि पर पंखा झलेगा।
गाँव के मेहमान की अभ्यर्थना है धर्म सबका,
वह हमारे पाहुने की भावनाओं में ढलेगा।
नागरिक सुकुमार सुविधाएँ, सुखद अनुभूतियाँ बहु,
दे कहाँ से तुम्हें सूखी पत्तियों का यह बिछावन।
आत्मा की छाँह की, पर तुम्हें शीतलता मिलेगी,
ग्राम-अन्तर की मिलेगी भावना पावन-सुहावन।
और परिचय मैं बता दूँ, भावरा कहते मुझे सब,
जो घुमड़ती ही रहे, उस याद जैसा गाँव हूँ मैं।
छोड़ जाता जो समय के वक्ष पर दृढ़-चिह्न अपना,
अंगदी व्यक्तित्व का अनपढ़ हठीला पाँव हूँ मैं।
सभ्यता की वर्ण-माला की लिखी पहली लिखावट,
सुभग मंगल तिलक-सा हूँ, संस्कृति के भाल पर मैं।
हो रहा संकोच, कैसे मैं बखानूँ रूप अपना,
एक तिल जैसा हुआ प्रस्थित प्रकृति के गाल पर मैं।
गिरि-शिखरियों के सहुवान सुखद आँगन में अवस्थित,
छू रही नभ को हठीली विंध्य-पर्वत की भूजाएँ।
लग रह, जैसे प्रकृति के पालने में झूलता मैं,
गगन के छत से बँधी ये डोरियाँ गिरि-मेखलाएँ।
या कि माँ की गोद में, मैं दुबक कर बैठा हुआ-सा,
माँगती मेरे लिए वह, हाथ ऊँचे कर दुआएँ।
या पिलाने दूध, आँचल ओट माँ ने कर लिया हो,
ले बलैंया, टालती हो वह सभी मेरी बलाएँ।
या कि नटखट एक बालक ओट लेकर छिप गया हो,
माँ प्रकट हो, उछल औचक हूप! कर उसको डराने।
चौंकती सी देख उसको, डर गई! कहकर चिढ़ाने,
डाल गलबहियाँ, विजय के गर्व से फिर खिलखिलाने।
और अब इस ओर देखो, ताल यह जल से भरा जो,
चमकता ऐसे, चमकता जिस तरह श्रम का पसीना।
या कि पर्वत-श्रृंखला की प्रिय अँगूठी में जड़ा हो,
जगमगाता शुभ्र शुभ अनमोल सुन्दर-सा नगीना।
या कि वृत्ताकर दर्पण, हो खचित वर्तुल परिधि में,
शैल-मालाएँ सँवर कर रूप इसमें झाँकती हों।
स्व्च्छ, जैसे दूधिया चादर बिछाई हो किसी ने,
फूल-पुरइन, उँगलियाँ जैसे सितारे टाँकती हों।
देखते हो तुम पथिक! तस्र्वृन्द अपने पास ही जो,
ये सुकृत जैसे, समय अनुकूल फलते-फूलते हैं।
झूमने लगते कभी फल-भार के उन्माद से ये,
चढ़ समीरण के हिडोले पर कभी ये झूलते हैं।
रात है इन पर उतरती, साधना की शान्ति जैसी,
ये उजाले दिन कि जैसे तेज हो तप का विखरता।
शान्ति मन में, पर यहाँ संघर्ष जीवन में निरन्तर,
कर्म की आराधना से, मन यहाँ सब का निखरता।
ग्राम-वासी लोग, जैसे साधना-रत कर्मयोगी,
सन्त जैसे सरल मन, अवधूत जैसे आदिवासी।
पुण्य के प्रति नित विचारों में प्रगति मिलती यहाँ पर,
और मिलती पाप के प्रति यहाँ जीवन में उदासी।
ग्राम-घर, ऊँचे भवन कुछ, सण्कुचित-सी कुछ झुपड़िएँ,
बहुरिएँ, ज्यों ससुर जी को देखकर शरमा गई हों।
कुछ अटरिएँ धवल, शोभित हैं घरौदों में कि जैसे,
बाल-मुख में दूध की कुछ-कुछ दँतुलिएँ आ गई हों।