खेल यह जीवन-मरण का / गोपालदास “नीरज”

आज तो अब बन्द कर दो खेल यह जीवन-मरण का।

थक चुका तन, थक चुका मन, थक चुकी अभिलाषा मन की
साँस भी चलती थकी सी, झूमती पुतली नयन की
स्वेद, रज से लस्त जीवन बन गया है भार पग पर
वह गरजती रात आती पोंछती लाली गगन की
झर रहा सीमान्त-मुक्ता-फ़ूल दिन-कामिनि-किरण का
आज तो अब बन्द कर दो खेल यह जीवन-मरण का।

स्वप्न-नीड़ों की दिशा में ले मधुर अरमान मन में
जा रहे उड़ते विहग संकेत सा करते गगन में
तैरती दिन भर रही जो नाव तट पर आ लगी है
और भी जग के खिलाड़ी जा रहे मधु की शरण में
वह अकेलों का सहारा चाँद भी खोया गगन का
आज तो अब बन्द कर दो खेल यह जीवन-मरण का।

प्रात से ही खेलता हूँ खेल मैं अब तक तुम्हारा
और क्षण भर भी नहीं विश्राम को मैंने पुकारा
किन्तु आखिर मैं मनुज हूँ और मुझमें मन मनुज का
बाद श्रम के चाहता जो सेज-शय्या का सहारा
खेलता कैसे रहूँ फ़िर खेल मैं निशि भर नयन का।
आज तो अब बन्द कर दो खेल यह जीवन-मरण का।

खेल होगा खत्म ये कल या नहीं- यह भी अनिश्चित
कौन जीतेगा सदा से सर्वथा यह बात अविदित
फ़िर कहो किस आस पर मैं लड़खड़ाता सा निरन्तर
खेलता ही नित रहूँ इस खेल से होकर अपिरिचित
जबकि सम्मुख हो रहा है खून मेरे सुख-सपन का।
आज तो अब बन्द कर दो खेल यह जीवन-मरण का।

ओ सरल नादान मानव! जान क्या पाया न अब तक
खत्म हो सकता नहीं यह खेल बाकी साँस जब तक
वह नया कच्चा खिलाड़ी खेल के जो बीच ही में
पूछता है साथियों से बन्द होगा खेल कब तक
इसलिए फ़िर से जुटा जो खो गया उत्साह मन का।
आज तो अब बन्द कर दो खेल यह जीवन-मरण का।

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