क्षमा-प्रार्थना / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

आज बह गई मेरी वह व्याकुल संगीत-हिलोर
किस दिगंत की ओर?
शिथिल हो गई वेणी मेरी,
शिथिल लाज की ग्रन्थि,
शिथिल है आज बाहु-दृढ़-बन्धन,
शिथिल हो गया है मेरा वह चुम्बन!
शिथिल सुमन-सा पड़ा सेज पर अंचल,
शिथिल हो गई है वह चितवन चंचल!
शिथिल आज है कल का कूजन—
पिक की पंचम तान,
शिथिल आज वह मेरा आदर—
मेरा वह अभिमान!
यौवन-वन-अभिसार-निशा का यह कैसा अवसान?
सुख-दुख की धाराओं में कल
बहने की थी अटल प्रतिज्ञा—
कितना दृढ़ विश्वास,
और आज कितनी दुर्बल हूँ—
लेती ठंढ़ी साँस!
प्रिय अभिनव!
मेरे अन्तर के मृदु अनुभव!
इतना तो कह दो—
मिटी तुम्हारे इस जीवन की प्यास?
और हाँ, यह भी, जीवन-नाथ!—
मेरी रजनी थी यदि तुमको प्यारी
तो प्यारा क्या होगा यह अलस प्रभात?
वर्षा, शरत, वसन्त, शिशिर, ऋतु शीत,
पार किये तुमने सुन सुनकर मेरे जो संगीत,
घोर ग्रीष्म में वैसा ही मन
लगा, सुनोगे क्या मेरे वे गीत—
कहो, जीवन-धन!
माला में ही सूख गये जो फूल
क्या न पड़ेगी उनपर, प्रियतम,
एक दृष्टि अनुकूल!
ताक रहे हो दृष्टि,
जाँच रहे हो या मन?—
क्षमा कर रहे हो अथवा तुम देव,
अपने जन के स्खलन और सब पतन?
बाँधे से तुमने जिस स्वर में तार,
उतर गये उससे ये बारम्बार!
दुर्बल मेरे प्राण
कहो भला फिर
कैसे गाते रचे तुम्हारे गान?++

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