किसी दिन, चाहते हैं / ऐतबार साज़िद

किसी दिन, चाहते हैं
चुपके से हम उस के जीने पर
कोई जलता दिया,
कुछ फूल
रख आयें
के अपने बचपन में
वो अंधेरों से भी डरता था
उसेफूलों की खुशबू से भी रघबत थी
बोहत मुमकिन है, अब भी
शब की तारीकी से उस को खौफ आता हो
महकते फूल शायद बैस-ए-तस्कीन अब भी हों
सो इस इमकान पर
इक शाम उस के नाम करते हैं
चलो यह काम करते हैं!

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