कानपुर के नाम / गोपालदास “नीरज”

कानपुर! आह!आज याद तेरी आई फिर
स्याह कुछ और मेरी रात हुई जाती है,
आँख पहले भी यह रोई थी बहुत तेरे लिए
अब तो लगता है कि बरसात हुई जाती है.

तू क्या रूठा मेरे चेहरे का रंग रूठ गया
तू क्या छूटा मेरे दिल ने ही मुझे छोड़ दिया,
इस तरह गम में है बदली हुई हर एक खुशी
जैसे मंडप में ही दुलहिन ने दम तोड़ दिया.

प्यार करके ही तू मुझे भूल गया लेकिन
मैं तेरे प्यार का अहसान चुकाऊँ कैसे
जिसके सीने से लिपट आँख है रोई सौ बार
ऐसी तस्वीर से आँसू यह छिपाऊँ कैसे.

आज भी तेरे बेनिशान किसी कोने में
मेरे गुमनाम उमीदों की बसी बस्ती है
आज ही तेरी किसी मिल के किसी फाटक पर
मेरी मज़बूर गरीबी खड़ी तरसती है.

फर्श पर तेरे ‘तिलक हाल’ के अब भी जाकर
ढीठ बचपन मेरे गीतों का खेल खेल आता है
आज ही तेरे ‘फूलबाग’ की हर पत्ती पर
ओस बनके मेरा दर्द बरस जाता है.

करती टाईप किसी ऑफिस की किसी टेबिल पर
आज भी बैठी कहीं होगी थकावट मेरी,
खोई-खोई-सी परेशान किसी उलझन में
किसी फाइल पै झुकी होगी लिखावट मेरी.

‘कुसरवां’ की वह अँधेरी-सी हयादार गली
मेरे’गुंजन’ने जहाँ पहली किरन देखी थी,
मेरी बदनाम जवानी के बुढ़ापे ने जहाँ
ज़िन्दगी भूख के शोलों में दफन देखी थी.

और ऋषियों के नाम वाला वह नामी कालिज
प्यार देकर भी न्याय जो न दे सका मुझको,
मेरी बगिया कि हवा जो तू उधर से गुज़रे
कुछ भी कहना न, बस सीने से लगाना उसको.

क्योंकि वह ज्ञान का एक तीर्थ है जिसके तट पर
खेलकर मेरी कलम आज सुहागिन है बनी,
क्योंकि वह शिवाला है जिसकी देहरी पर
होके नत शीश मेरी अर्चना हुई है धनी.

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